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Singh Sankranti 2024: सिंह संक्रांति पर करें आदित्यहृदय स्तोत्र का पाठ, आर्थिक तंगी से मिलेगी निजात

ज्योतिषियों की मानें तो आत्मा के कारक सूर्य देव 16 अगस्त को राशि परिवर्तन (Singh Sankranti 2024) करेंगे। इस दिन सूर्य देव कर्क राशि से निकलकर सिंह राशि में गोचर करेंगे। इस राशि में पूर्व से बुध और शुक्र देव विराजमान हैं। आत्मा के कारक सूर्य देव के राशि परिवर्तन करने से राशि चक्र की सभी राशियों पर भाव अनुसार प्रभाव पड़ेगा।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Thu, 15 Aug 2024 08:00 AM (IST)
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Singh Sankranti 2024: सिंह संक्रांति का धार्मिक महत्व
धर्म डेस्क, नई दिल्ली। Singh Sankranti 2024: ज्योतिषीय गणना के अनुसार, 16 अगस्त को सिंह संक्रांति है। यह दिन भगवान सूर्य को समर्पित होता है। इस शुभ अवसर पर सूर्य देव की विशेष पूजा की जाती है। साथ ही जप-तप और दान-पुण्य किया जाता है। बड़ी संख्या में श्रद्धालु गंगा समेत पवित्र नदियों में आस्था की डुबकी लगाते हैं। साथ ही सूर्य देव की उपासना करते हैं। धार्मिक मत है कि सूर्य देव की उपासना करने से साधक को आरोग्य जीवन का वरदान प्राप्त होता है। अगर आप भी सूर्य देव की कृपा पाना चाहते हैं, तो सिंह संक्रांति पर सूर्य देव की पूजा करें। साथ ही पूजा के समय आदित्यहृदय स्तोत्र का पाठ करें। इस स्तोत्र के पाठ से जातक पर सूर्य देव की विशेष कृपा बरसती है।

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सूर्य मंत्र

1. जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम ।

तमोsरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोsस्मि दिवाकरम ।।

2. ऊँ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यण्च ।

हिरण्य़येन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन ।।

3. ऊँ आदित्याय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात ।।   

4. भावस्यद्रत्नाढ्यमौलि: स्फुरदधररुचारज्जितश्चारुकेशी।

भास्वान्योदिव्यतेजा करकमलयुत: स्वनर्णवणर्न प्रभाभि:॥

विश्वाकाशावकाशो ग्रहगणसहितो भाति यश्चोदयाद्रौ।

सवर्वानन्दप्रदाता हरिहरनमितपातु मां व्विश्वचक्षु:॥

5. प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजुंषि।

सामानि यस्य किरणा: प्रभवादिहेतुं ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यचिन्त्यरूपम्॥

प्रातर्नमामि तरणिं तनुवाङमनोभि र्ब्रहोन्द्र पूर्वक सुरैर्नतमर्चितं च।

र्वष्टि प्रमोचन विनिग्रह हेतुभूतं त्रैलोक्य पालनपरं त्रिगुणात्मकं च्॥

प्रातर्भजामि सवितारमनन्तशक्तिं पापौघशत्रुभयरोगहरं परं चं।

तं सर्वलोककनाकात्मककालमूर्ति गोकण्ठबंधन विमोचनमादिदेवम्॥

ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:।

आप्रा घावाप्रथिवी अंतरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्रच॥

सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मत्यर्यो न योषामभ्येति पश्र्चात्।

यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम॥

श्लोकत्रयमिदं भानो: प्रात: काले पठेतु य: ।

स सर्वव्याधिनिर्मुक्त: पर सुखमवाप्नुयात्॥

आदित्यहृदय स्तोत्र

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।

रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।

उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा ॥

राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम् ।

येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ।

जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥

सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।

चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम् ॥

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् ।

पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥

सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।

एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।

महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥

पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः ।

वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान् ।

सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः ॥

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।

तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः ।

अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः ।

घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥

आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः ।

कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः ॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः ।

तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।

ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।

नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः ।

नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे ।

भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।

कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥

तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे ।

नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥

नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः ।

पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।

एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥

देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।

यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।

कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।

एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति ॥

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।

एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा ।

धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।

त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत् ।

सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।

निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥

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