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जब महर्षि याज्ञवल्क्य ने ऋषि भारद्वाज को बताया कि आखिर कौन है भगवान राम?

यह सुभ संभु उमा संबादा वेद पुराण तथा श्रीरामचरितमानस में विभिन्न विषयों पर दृष्टि को सुस्पष्ट करके जो समाधान दिया गया है उसका आधार मात्र जिज्ञासु और गुणी का परस्पर संवाद है। लक्ष्य के प्रति विकल्परहित निष्ठा के अभाव में संवाद संभव नहीं होता। संवाद विवाद का समूलोच्छेदन करता है।

By Priyanka SinghEdited By: Priyanka SinghUpdated: Mon, 09 Jan 2023 12:22 PM (IST)
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जब महर्षि याज्ञवल्क्य ने ऋषि भारद्वाज को बताया कि आखिर कौन है भगवान राम

नई दिल्ली, स्वामी मैथिलीशरण संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन। तुलसीकृत मानस में प्रयागराज त्रिवेणी के तट पर जिज्ञासा-समाधान का क्रम आरंभ हुआ। यह वैदिक परंपरा है। अथातो ब्रह्म जिज्ञासा! जब मुनि भरद्वाज जी प्रश्न करते हैं। भरद्वाज जी के जीवन में ज्ञान, भक्ति और कर्म की त्रिवेणी प्रवहमान रहती है। वे त्रिकालज्ञ हैं। सृष्टि के सारे रहस्यों का जिन्हें संपूर्ण ज्ञान है। वे प्रश्न करते हैं माघ माह में प्रयाग में अतिथि रूप में पधारे महर्षि याज्ञवल्क्य से। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श पंच तन्मात्राओं के बोध से परे आत्मतत्व में स्थित महर्षि भरद्वाज को यह समाचार मिला कि अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट महाराज दशरथ के यहां तीन भाइयों भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न के साथ श्रीराम का जन्म हुआ है, जिनका विमल सुयश चारों ओर सुगंध, वायु, प्रकाश की तरह फैल चुका है। जिज्ञासावश भरद्वाज महर्षि याज्ञवल्क्य से निवेदन करते हैं कि आप कृपया कुछ दिन त्रिवेणी तट पर विराजमान रहकर मुझे यह समझा दीजिए कि जिन राम के नाम का प्रभाव सारे वेदों और संतों ने लीन होकर गाया है, यह राम जिनका जन्म अयोध्या में हुआ है, वे ही हैं या ये कोई और राम? हमारे संशय को भ्रम की स्थिति में जाने से पूर्व ही आप इसे समाप्त कर दीजिए। अब जिस कारण संवाद का सुफल हुआ और जो विवाद नहीं बना, वही कार्य महर्षि याज्ञवल्क्य ने किया। क्या? यह कि पहले उन्होंने जिज्ञासु भरद्वाज के ज्ञान की प्रशंसा की और उनकी जिज्ञासा वृत्ति का भावपूर्ण अर्थ बताया तथा सम्मान किया।

भाव से कोई बात कही जाए और बुद्धि से सुनी जाए तो निश्चित विवाद होगा। बुद्धि से कहा जाए और भाव से सुना जाए तो फिर सार्थक संवाद होता है। वस्तुत: श्रोता और वक्ता एक-दूसरे के पूरक तत्व हैं, कोई अपूर्ण नहीं है। श्रोता न हो, तो वक्ता अपूर्ण और वक्ता न हो तो श्रोता अपूर्ण!

याज्ञवल्क्य बड़ी मधुर और अमृतमय वाणी में भरद्वाज जी को संबोधित कर बोले, हे मुनि! मैं आपकी चतुराई जान गया। यद्यपि इसी चतुराई का उपयोग संसार में संसार को पाने के लिए किया जाए तो वह चतुराई अधोमुखी हो जाती है, पर आपकी तरह यदि कोई भगवान के दिव्य रहस्य और चरित्र को जानने के लिए उस चतुराई का उपयोग करता है तो फिर वही जिज्ञासा, ब्रह्म जिज्ञासा होकर वेद से पुराण और फिर श्रीरामचरितमानस की गंगा बन जाती है, जो स्वयं भी भगवान के चरित्र समुद्र में मिल जाती है। उसमें जो अवगाहन या आचमन करता है, उसे भी धन्य कर देती है। याज्ञवल्क्य कहते हैं कि मुनि भरद्वाज! यद्यपि मन, वचन, कर्म से आप रामभक्त हैं, पर भगवान की कथा सुनने की लालसा से आप अपने श्रवण रंध्रों को समुद्र बनाकर कथा की सरिता को समाहित करने के लिए अल्पज्ञ बनकर मुझे बड़ाई देने के लिए प्रश्न कर रहे हैं। उन्होंने इस वार्ता को संवाद का नाम दिया :

कहउं सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।

भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद।।

श्रीरामचरितमानस की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें कोई वक्ता यह नहीं मानता है कि यह जो कथा मैं आपको सुना रहा हूं, यह मेरी रचना है। गुरुदेव श्रीरामकिंकर जी महाराज ने इसे अनादि कहकर उद्घाटित किया, यह आदि नहीं, अनादि रचना है। आदि का अंत होता है, अनादि तो पूर्ण और अविनाशी होता है। अब याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज के प्रश्न के अनुसार रामकथा न सुनाकर पहले उन्हें शिव-पार्वती का संपूर्ण चरित्र सुनाया। भरद्वाज की जिज्ञासा वृत्ति का श्रद्धेय पक्ष यह है कि उन्होंने याज्ञवल्क्य से कथा के बीच में यह नहीं कहा कि मैंने तो प्रश्न रामकथा का किया था और आप यह शिवकथा क्यों सुना रहे हैं? अंत में याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज जी की पुन: प्रशंसा करते हुए कहा कि मैंने जानबूझकर तुम्हें पहले शिव चरित सुनाया, क्योंकि जिसको शिव भक्ति में रुचि नहीं है, वह कभी श्रीरामचरितमानस का अधिकारी नहीं हो सका है। भगवान श्रीराम ने स्वयं इसे कहा है कि :

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउं कर जोरि।

संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥

याज्ञवल्क्य कहते हैं कि मैंने शिव चरित्र सुनाकर समझ लिया कि तुम वास्तव में निर्विकार और जिज्ञासु हो! मुझे तुम्हें रामकथा सुनाकर जो सुख मिल रहा है, मैं शब्दों में उसका वर्णन नहीं कर सकता हूं। याज्ञवल्क्य कहते हैं कि यह कथा सबसे पहले शंकर जी ने पार्वती जी को सुनाई। शंकर जी कहते हैं कि यह कथा मैंने सुमेरु पर्वत पर काकभुशुंडि से सुनी, जब वे गरुड़ समेत अनेक पक्षियों को कथा सुना रहे थे। तुलसीदास जी कहते हैं कि मैंने अपने गुरु जी से सुनी, पर कोई यह कहने को तैयार नहीं है कि यह रचना मेरी है। इसीलिए पूज्य गुरुदेव श्रीरामकिंकर जी कहा करते थे कि मेरी कोई व्याख्या मौलिक नहीं, वहां सब कुछ तुलसीदास जी का है। वे कहते थे कि मौलिक तो कुछ होता ही नहीं है, मौलिक तो बस वही है, जो हमें मूल से जोड़े रहे। मूल से जुड़े रहना ही हमारी संस्कृति है। वह अनादि है। इसलिए संसार को संवाद का आश्रय लेना चाहिए।

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