क्यों भगवान श्रीराम ने राज सिंहासन के बदले 14 वर्षों का वनवास चुना? जानें इसके पीछे का गूढ़ रहस्य
जगत जननी मां सीता के हरण के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम (Lord Ram) ने वन-वन घूमकर न केवल मां सीता को ढूंढने की कोशिश की बल्कि ऋषि मुनियों से मिलकर अस्त्र-शस्त्र भी एकत्र किये। वहीं रावणों का गढ़ कहे जाने वाले दंडकारण्य वन में रहने वाले असुरों का भी वध किया। इसके बाद युद्ध में लंकापति रावण का वध किया था।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Wed, 03 Jul 2024 09:51 PM (IST)
धर्म डेस्क, नई दिल्ली। Maryada Purushottam Ram: सनातन शास्त्र रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की महिमा का गुणगान विस्तार पूर्वक किया गया है। राम भक्त तुलसीदास ने अपनी रचना रामचरितमानस में मर्यादा पुरुषोत्तम की प्रशंसा इस पंक्ति से की है। 'धन्य अवध जो राम बखानी।' इसका भावार्थ यह है कि अवध के लोग धन्य हैं, जो भगवान श्रीराम ने अवतरण के लिए अवध भूमि का चयन किया। कालांतर से राम नाम का प्रवाह बह रहा है।
भगवान श्रीराम ने अपने जीवन काल में केवल और केवल त्रासदियों का सामना किया। अगर आप उनके जीवन पर ध्यान दें तो पता चलता है कि उन्हें जीवन में दुख के सिवाय कुछ नहीं मिला। राजसिंहासन से एक दिन पूर्व ही उन्हें चौदह वर्षों का वनवास मिला। वनवास गमन के साथ ही पितृ वियोग मिला। वहीं, वनवास के दौरान उन्हें पत्नी वियोग का सामना करना पड़ा। वनवास समाप्त होने के बाद पत्नी का पुनः वियोग मिला। इसके बाद अनजाने में उन्हें अपने पुत्रों से ही युद्ध करना पड़ा। इसके बाद भगवान श्रीराम को माता सीता का वियोग जीवन भर के लिए मिला, जब जगत की देवी सबकुछ छोड़कर धरती में समाहित हो गईं।
कुल मिलाकर कहें तो भगवान श्रीराम अपने जीवन काल में हर समय केवल और केवल दुखों का ही सामना किया। उनके जीवन से सुख कोसों दूर था। जीवन काल में दुखों का सामना करने के बाद भी भगवान श्रीराम ने कभी धैर्य और मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। इसके लिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहा जाता है। लेकिन क्या आपको पता है कि भगवान श्रीराम को चौदह वर्षों का ही वनवास क्यों मिला ? आइए, इसके बारे में सबकुछ जानते हैं-
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राजा दशरथ के वचन
सनातन शास्त्रों में निहित है कि राजा दशरथ कुशल योद्धा थे। उनकी वीरता की चर्चा न केवल पृथ्वी पर, बल्कि तीनों लोकों में फैली थी। तत्कालीन समय में देवताओं के तरफ से उन्हें असुरों के विरुद्ध युद्ध लड़ने का प्रस्ताव भेजा गया। इस प्रस्ताव को राजा दशरथ ने स्वीकार किया। इसके बाद देवसंग्राम युद्ध में राजा दशरथ ने देवताओं के तरफ से युद्ध लड़ा। इस युद्ध में एक बार ऐसी स्थिति भी पैदा हुई थी।
जब राजा दशरथ घायल हो गए थे। कई शास्त्रों में निहित है कि राजा दशरथ युद्ध भूमि पर असुरों के बीच घिर गए थे। तब रानी कैकेयी ने राजा दशरथ की सहायता की। इस सहायता के चलते राजा दशरथ युद्ध में विजयश्री प्राप्त करने में सफल हो सके थे। उस समय राजा दशरथ ने रानी कैकेयी को दो वर मांगने को कहा। हालांकि, रानी कैकेयी ने यह कहकर टाल दिया कि सही वक्त पर आपसे वर मांग लूंगी।
रानी कैकेयी और मंथरा की चाल
वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण (Ramayana) में निहित है कि भगवान श्रीराम के विवाह उपरांत राजा दशरथ ने अपना उत्तराधिकारी अपने बड़े पुत्र को चुना। इसके लिए उन्होंने ऋषि विश्वामित्र से भी सलाह ली थी। ऋषि विश्वामित्र की सलाह के बाद भगवान श्रीराम को उत्तराधिकारी चुना गया। इस अवसर पर राजतिलक की भी घोषणा हुई। यह बात रानी कैकेयी की सखी मंथरा के पास पहुंची। तब मंथरा ने रानी कैकेयी को भगवान श्रीराम को राजा बनाने का मुख्य कारण बताया। मंथरा की मानें तो भगवान श्रीराम के राजा बनने से उनके और उनके पुत्र का प्रभुत्व कम या समाप्त हो जाएगा। अगर अभी उन्हें नहीं रोका जाता है, तो आगामी समय बड़ा ही कष्टमय बीतेगा। यह जान रानी कैकेयी को वरदान मांगने को कहा। मंथरा की बातों में आकर रानी कैकेयी ने राजा दशरथ से दो वर मांगें। इनमें प्रथम चौदह वर्षों का वनवास था। वहीं, दूसरा वरदान राजकुमार भरत को राजा बनाना था। राजा दशरथ ने रानी कैकेयी से बड़ी मिन्नतें की। हालांकि, रानी कैकेयी नहीं मानीं। तब राजा दशरथ ने भगवान श्रीराम से अपनी आपबीती सुनाई। भगवान श्रीराम ने तत्क्षण पिता के आदेश को स्वीकार्य कर वनवास को चुन लिया। भगवान श्रीराम के वनवास जाने की बात आग की तरह पूरे अयोध्या में फैल गई। अगले दिन भगवान श्रीराम का राजतिलक नहीं हुआ। भगवान श्रीराम, माता सीता और अनुज लक्ष्मण जी वनवास की ओर कूच कर गए। इस समय राजकुमार भरत अपने ननिहाल में थे।