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समाज को समर्पित संत

महापुरुष अकेले ही युग की धारा को मोड़ने में सक्षम होते हैं। अकेले ही हर संकट और तूफानों की चुनौती से लड़ने की कुव्वत रखते हैं। जमाने की हर धड़कन को बहुत ही शिद्दत के साथ महसूस करते हैं। ऐसे ही कर्मवीर योद्धा थे गुरुकुल कांगड़ी और दूसरी अनेक शिक्षण संस्थाओं के संस्थापक, समाज सुधारक, सद्धर्म पत्रिका के संपादक, दलितों और वंचितों के मसीहा स्वामी श्रद्धानंद।

By Edited By: Updated: Thu, 08 Dec 2011 06:38 PM (IST)
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महापुरुष अकेले ही युग की धारा को मोड़ने में सक्षम होते हैं। अकेले ही हर संकट और तूफानों की चुनौती से लड़ने की कुव्वत रखते हैं। जमाने की हर धड़कन को बहुत ही शिद्दत के साथ महसूस करते हैं। ऐसे ही कर्मवीर योद्धा थे गुरुकुल कांगड़ी और दूसरी अनेक शिक्षण संस्थाओं के संस्थापक, समाज सुधारक, सद्धर्म पत्रिका के संपादक, दलितों और वंचितों के मसीहा स्वामी श्रद्धानंद। उन्होंने आजादी की लड़ाई में ही नहीं, समाज को आकार देने में भी भूमिका निभाई। आर्य समाज, कांगे्रस और दलितोत्थान सभा के जरिये देश की तमाम सामाजिक, धार्मिक, मजहबी, राजनीतिक, शैक्षिक और दूसरी समस्याओं को खत्म करने के लिए अपनी सारी जिंदगी लगा दी। स्वामी दयानंद के उत्तराधिकारी स्वामी श्रद्धानंद ने अपने गुरु द्वारा शुरू किए गए इंसानियत की हिफाजत के मिशन और दुनिया को एक पवित्र रास्ते पर ले चलने के संकल्प को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। वे श्रद्धानंद ही थे, जिन्होंने गोरखा सिपाहियों की बंदूकों के सामने सीना तान कर कहा-दम हो तो चलाओ गोली। और गोरखा सिपाहियों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे।

श्रद्धानंद का बचपन अच्छा नहीं था। उनका नाम मुंशी राम था। वे कुसंगति में पड़ गए थे। लेकिन उनकी जिंदगी में सूर्योदय महर्षि दयानंद के संपर्क में (बरेली, उ.प्र. में) आकर हुआ। उनका कायाकल्प हो गया। उन्हें लगा कि उनकी नास्तिकता और वेद-शास्त्रों के विरुद्ध विचार का कोई आधार नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर तो मन पूरी तरह बदल गया। मुंशी राम स्वामी श्रद्धानंद के रूप में धर्म, शिक्षा, आजादी के संघर्ष, दलितोत्थान, बेवाओं का कल्याण और राष्ट्रीय चेतना की मशाल बनकर सामने आए।

महात्मा गांधी स्वामी जी के समाज के लिए किए गए कायरें की हमेशा सराहना करते थे। कई बार वे उनसे मिलने के लिए गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार भी आते थे। वे उनके शिक्षा के अभिनव प्रयोगों के कायल थे। कांगे्रस के अधिवेशनों में वे स्वागताध्यक्ष कई बार बने, लेकिन दलितों बेसहारों के लिए उन्होंने कांगे्रस को छोड़ा भी और अखिल भारतीय दलितोद्धार सभा की स्थापना की। कन्याओं को वैदिक शिक्षा दिलाने और उनके चहुमुखी विकास के लिए कन्या गुरुकुल खोले। उन्होंने सांप्रदायिक सद्भावना का अनूठा परिचय दिया। देश में राष्ट्रीय एकता बनाने और गुलामी से पीछा छुड़ाने के लिए कई बार जेल गए। 70 साल उम्र में बीमारी की हालात में भी कार्य करते रहते थे। 23 दिसंबर 1926 को चांदनी चौक की रघुमल कोठी में किसी सिरफिरे व्यक्ति ने उनकी गोली मार कर हत्या कर दी।

[अखिलेश आर्येन्दु]

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