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इस बार आध्यात्मिक ज्ञान के रंग में रंगकर खेलें होली, चारों तरह होगा हर्षोल्लास

आध्यात्मिक ज्ञान के रंग से आत्मा की चोली को रंगना ही वास्तविक होली मनाना है। माया का रंग तो हर एक मनुष्य पर चढ़ा हुआ है। अब ईश्वरीय संग के रंग में आत्मा को रंगना ही आध्यात्मिक होली है। होली का उत्सव हमें आपसी भेदभाव मन मुटाव अहंकार व तमाम सामाजिक बंधनों को तोड़कर अपनी अंदर की भावना उमंग उल्लास को प्रकट करने का अवसर देता है।

By Jagran News Edited By: Vaishnavi Dwivedi Updated: Sun, 17 Mar 2024 12:32 PM (IST)
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Holi 2024: ब्रह्मा कुमारी शिवानी (आध्यात्मिक प्रेरक वक्ता)।
ब्रह्मा कुमारी शिवानी (आध्यात्मिक प्रेरक वक्ता)। प्रत्येक उत्सव हमारा उत्साह बढ़ाने के लिए आता है। होली का पावन पर्व, हमारे जीवन में नई उमंग, उत्साह, हर्ष, उल्लास और खुशी के रंग बिखेरने आती है। अकसर हम बाहरी तौर पर स्थूल रंगों से होली खेलते, मनाते व जलाते हैं, वे सब हमारे भीतर की भावनाओं को प्रकाशित करते हैं। होली का उत्सव हमें आपसी भेदभाव, मन मुटाव, अहंकार व तमाम सामाजिक बंधनों को तोड़कर अपनी अंदर की भावना, उमंग, उल्लास को प्रकट करने का अवसर देता है।

अंतरात्मा के बिना शरीर बेकार

जैसे अंतरात्मा के बिना शरीर बेकार हो जाता है, वैसे ही अध्यात्मिक अर्थ समझे बिना त्योहार मनाना भी बेकार है। वस्तुतः: भारत में जो भी त्योहार मनाए जाते हैं, उनमें एक ज्ञान-युक्त क्रम भी है। होली से पहले महाशिवरात्रि का उत्सव आता है, जो वास्तव में ज्ञान सूर्य परमात्मा शिव का अवतरण पर्व है। यह परमात्म अवतरण मनुष्यों के मन से देह अभिमान, अहंकार, विकार और बुराइयों का अज्ञान-अंधकार मिटाने का उत्सव है।

परमात्मा शिव आकर अपने 'संग का रंग' यानी ज्ञान-योग का रंग मनुष्य आत्मा को देते हैं। इसी की याद में शिवरात्रि के बाद होली मनाई जाती है।

आध्यात्मिक ज्ञान के रंग

इससे स्पष्ट है, आध्यात्मिक ज्ञान के रंग से आत्मा की चोली को रंगना ही वास्तविक होली मनाना है। माया का रंग तो हर एक मनुष्य पर चढ़ा हुआ है। अब ईश्वरीय संग के रंग में आत्मा को रंगना ही आध्यात्मिक होली है। परमात्मा के संग व ज्ञान का रंग, उल्लास देने वाला रंग है। क्योंकि जब परमात्म ज्ञान का रंग लगता है, तब मनुष्य का आत्मा पवित्र रहने का व्रत लेता है। यानी मन, वचन व कर्म से पवित्रता की रक्षा करता है। इसलिए, होली के बाद रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाता है।

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ईश्वरीय रंग में रंगना ही है होली

आजकल सभी मिलकर एक-दूसरे के साथ होली खेलने हैं। कई बार जबरदस्ती भी रंग लगाते हैं। लगाना तो ज्ञान का रंग चाहिए। ज्ञान की दृष्टि में तो यह मनुष्य सृष्टि ही एक विराट खेल है। इस सृष्टि में दो ही रंग है, एक माया का और दूसरा ईश्वर का। हर मानव इन दोनों रंगों में से एक न एक रंग में तो रहता ही है। ईश्वरीय रंग में रंगना ही श्रेष्ठ होली मनाना है। भगवान के रंग में रंगा हुआ व्यक्ति योगी है और माया के रंग में रंगा हुआ मनुष्य भोगी कहलाता है।

अब स्वयं को स्वयं से पूछना है कि मैं किस रंग में रंगा हुआ हूं; माया या ईश्वर के? कुसंग के या सत्संग के रंग में? अबीर व गुलाल लगाकर एक या दो दिन का आपसी स्नेह मिलन तो हो सकता है, पर सच्चा मंगल मिलन तो तभी होगा, जब हृदय शुद्ध हो और एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, गुस्सा आदि समाप्त हों।

पर्व की सार्थकता

यह सब मनमुटाव, भेदभाव व मनोविकार स्थूल रंग की मंगल मिलन से ठीक नहीं हो सकता है। अपने जीवन को होली अर्थात पवित्र बनाकर आध्यात्मिक रूप से होली खेलने में ही इस पर्व की सार्थकता है। आज हमें प्यार और सम्मान का रंग एक दूजे को लगाना है। उसके लिए हमें अपनी अंदर की बुराई, व्यसन व अवगुण रूपी होलिका को ईश्वरीय ज्ञान और राजयोग की अग्नि में जलाकर भस्म करना है।

होलिका दहन हमें यह याद दिलाता है कि पापी अपने ही किए पाप के ताप से जल मरता है; अतः हमे कोई पाप नहीं करना चाहिए। उसके लिए हमें प्रह्लाद की तरह मन, बुद्धि और हृदय से भगवान के हो जाना चाहिए अर्थात ईश्वरीय ज्ञान, गुण, शक्ति और मर्यादाओं को जीवन में धारण कर लेना चाहिए।

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