चिंतन धरोहर: शिव के अंश से जन्म होने पर मनुष्य ज्ञानी होता है
शिव के अंश से जन्म होने पर मनुष्य ज्ञानी होता है। उसका मन सदा ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या इसी बोध की ओर जाता है। विष्णु के अंश से जन्म हो तो प्रेम-भक्ति होती है। बहुत ज्ञान विचार करने के बाद यदि किसी समय यह प्रेम-भक्ति कुछ कम भी हो जाए तो फिर और एक समय यह यदुवंश का ध्वंस करने वाले मूसल की तरह देखते-देखते बढ़ भी जाती है।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 26 Nov 2023 11:34 AM (IST)
स्वामी रामकृष्ण परमहंस। साधक दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के साधक का स्वभाव बंदर के बच्चे की तरह होता है, दूसरे प्रकार के साधक का स्वभाव बिल्ली के बच्चे की तरह। बंदर का बच्चा स्वयं अपनी मां को पकड़े हुए उससे लिपटा रहता है, पर बिल्ली का बच्चा स्वयं मां को नहीं पकड़ता, मां उसे जहां छोड़ दे, वहीं पड़ा रहता है।बंदर का बच्चा स्वयं अपनी मां को पकड़े रहता है, इसलिए अगर कभी उसका हाथ छूट जाए तो वह गिर पड़ता है और उसे चोट पहुंचती है। पर बिल्ली के बच्चे को यह भय नहीं है, क्योंकि उसे उसकी मां स्वयं पकड़कर एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है।
यह भी पढ़ें: विकसित राष्ट्रों में स्त्रियों की वर्तमान परिस्थिति एक संक्रमणकालीन अवस्था हैइसी प्रकार, ज्ञानयोगी या कर्मयोगी साधक बंदर के बच्चे की तरह स्वयं के प्रयत्न से मुक्तिलाभ करने का प्रयास करता है, परंतु भक्त साधक ईश्वर को ही एकमात्र कर्ता जानकर बिल्ली के बच्चे की तरह उन्हीं के चरणों में निर्भय होकर निश्चित पड़ा रहता है। ज्ञानी कहता है सोहम्। मैं ही वह शुद्ध आत्मा हूं। परंतु भक्त कहता है, अहा, यह सब उनकी ही महिमा है। यह सब कुछ मैं हूं, यह सब कुछ तुम हो, तुम स्वामी हो, मैं सेवक-इन तीन भावों में से किसी भी एक में दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित होने पर ही भगवत्प्राप्ति होती है।
शिव के अंश से जन्म होने पर मनुष्य ज्ञानी होता है। उसका मन सदा ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या, इसी बोध की ओर जाता है। विष्णु के अंश से जन्म हो तो प्रेम-भक्ति होती है। उसके मन से प्रेम-भक्ति कभी नहीं जाती। बहुत ज्ञान विचार करने के बाद यदि किसी समय यह प्रेम-भक्ति कुछ कम भी हो जाए तो फिर और एक समय यह यदुवंश का ध्वंस करने वाले मूसल की तरह देखते-देखते बढ़ भी जाती है।यह भी पढ़ें: मन की कड़वाहट को मिटाने से संबंधों में समरसता आ जाएगी
ज्ञानी के भीतर मानो एक ही दिशा में गंगा बहती है। उसके लिए सबकुछ स्वप्नवत है। वह सदा स्व-स्वरूप में अवस्थित रहता है। परंतु भक्त के भीतर गंगा एक दिशा में नहीं बहती, उसमें ज्वारभाटा होता रहता है। वह कभी हंसता है, कभी रोता है, तो कभी नाचता-गाता है। भक्त भगवान के साथ विलास करना चाहता है। वह उस आनंदसागर में कभी तैरता है, कभी डूबता है, तो कभी उतराता है। नारदादि आचार्य ज्ञानलाभ करने के बाद भी लोककल्याण के लिए भक्ति लेकर रहते हैं। भक्ति चंद्र है और ज्ञान सूर्य। सुना है, एकदम उत्तर में और दक्षिण में समुद्र है, जहां इतनी ठंड है कि जगह जगह पानी जमकर बर्फ की चट्टानें बन जाती हैं। उन पर से जहाज चल नहीं पाते, अटक जाते हैं।
इसी तरह भक्तिपथ में मनुष्य अटक जाता है, पर उसे हानि नहीं होती। कारण, उस सच्चिदानंद सागर का ही जल जमकर बर्फ बना है। यदि तुम और भी विचार करना चाहो, यदि ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या का विचार करो, तो उसमें भी नुकसान नहीं। ज्ञानसूर्य के प्रभाव से बर्फ पिघल जाती है और केवल सच्चिदानंद सागर रह जाता है।