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चिंतन धरोहर: जीवन के सभी भेदभाव को मिटाने से होती है मोक्ष की प्राप्ति

मोक्ष जीवात्मा द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार है। वह किसी दूसरे लोक अथवा स्थान में पहुंचना नहीं है। इस ज्ञान से मन के प्रकाशित हो जाने पर कि जीवात्मा- अंतर्निवासी परमात्मा एक ही हैं मोक्ष प्राप्त हो जाता है। छाया प्रकाश में विलीन हो जाती है यह जानना ही मोक्ष है। समस्त भेदभाव को मिटाना मोक्ष है। यह पहचानना ही मोक्ष है कि हमारे आसपास सब परमात्मा का ही अधिष्ठान है।

By Kaushik SharmaEdited By: Kaushik SharmaUpdated: Mon, 05 Feb 2024 10:46 AM (IST)
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चिंतन धरोहर: जीवन के सभी भेदभाव को मिटाने से होती है मोक्ष की प्राप्ति
नई दिल्ली, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी: मोक्ष जीवात्मा द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार है। वह किसी दूसरे लोक अथवा स्थान में पहुंचना नहीं है। इस ज्ञान से मन के प्रकाशित हो जाने पर कि जीवात्मा और अंतर्निवासी परमात्मा एक ही हैं, मोक्ष प्राप्त हो जाता है। छाया प्रकाश में विलीन हो जाती है, यह जानना ही मोक्ष है।

समस्त भेदभाव को मिटाना मोक्ष है। यह पहचानना ही मोक्ष है कि हमारे आसपास सब कुछ परमात्मा का ही अधिष्ठान है। संस्कृत में मोक्ष शब्द का अर्थ केवल छुटकारा है, जबकि मोक्ष एक अवस्था है। वह कोई स्थान, भवन, उद्यान अथवा लोक नहीं है। इसलिए एक तमिल संत ने कहा है-सत्य पथ की यात्रा करने से परिशुद्ध हो जाने पर इंद्रियों को अंतर्मुख करके चित्त को असीम ब्रह्म के ध्यान में लीन कर देने पर सब सुख और दुख छिन्न हो जाते हैं और आसक्ति नष्ट हो जाती है। यही स्वर्ग है। यही स्वर्ग का आनंद है।

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आत्मा शरीर को जीवित शरीर का गुण करता है प्रदान

ज्ञान प्राप्त करके सब आसक्तियां त्यागकर यदि कोई निश्चिंत होकर समचित्त बन जाता है तो वही मुक्ति है। वही परमानंद है। इसे न जानकर संसार अज्ञानपूर्वक पूछता है, स्वर्ग कहां है? परमानंद कैसा होता है? और अपने आपको अनंत भ्रांति में खो देता है। शरीर, आत्मा और परमात्मा का पारस्परिक संबंध बताने की पद्धतियों में भेद है। परमात्मा हमारी समझ में नहीं आता, इसलिए हमारे महान आचार्यों ने निरूपण की अनेक पद्धतियों का अवलंबन किया है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं। आत्मा शरीर को जीवित शरीर का गुण प्रदान करता है।

जीवात्मा शरीर में प्राणों का करता है पोषण

परमात्मा जीवात्मा को दिव्य तेज देता है। जीवात्मा शरीर में प्राणों का पोषण करता है। परमात्मा जीवात्मा के दैवी स्वभाव का पोषण करता है। जिस प्रकार इस मर्त्य जीवन में शरीर और आत्मा एक सुखमय साम्राज्य में रह सकते हैं, उसी प्रकार यदि जीवात्मा परमात्मा के सुखमय साम्राज्य में रहे और उसमें कोई अपूर्णता, अज्ञान अथवा अन्यमनस्कता न हो तो यही मोक्ष है। परमात्मा का यह साम्राज्य प्राप्त करने के लिए जीवन की पवित्रता तथा आत्मसंयम आवश्यक है। इसे हम दूसरी दृष्टि से भी समझ सकते हैं। जीवात्मा परमात्मा की छाया मात्र है। अज्ञान छाया का और इस धारणा का कारण है कि छाया अपने आपको उत्पन्न करने वाले से भिन्न है। पार्थक्य का यह भाव कामना, आसक्ति, क्रोध और द्वेष से उत्तरोत्तर बढ़ता है।

जीवात्मा जल में सूर्य के प्रतिबिंबों के है समान

मन के जाग्रत होने पर दोनों एक-दूसरे में मिल जाते हैं। सूर्य पर जल चमकता है। जब जल में लहरें उठती हैं तो उसमें अनेक छोटे-छोटे सूर्य दिखाई पड़ते हैं। जीवात्मा जल में सूर्य के प्रतिबिंबों के समान है। जल न हो तो प्रतिबिंब भी न होंगे। इसी प्रकार अज्ञान के मिटने पर जीवात्मा परमात्मा एक साथ हो जाता है। अज्ञान मिटाने और ज्ञान प्राप्त करने के लिए पवित्रता, आत्मनिग्रह, भक्ति और विवेक की आवश्यकता होती है।

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