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चिंतन धरोहर: भारत एक सनातन यात्रा है , जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है

चिंतन धरोहर भारत एक सनातन यात्रा है एक अमृत-पथ है जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है। इसलिए भारत ने इतिहास नहीं लिखा उसने तो केवल उस चिरंतन की ही साधना की है। मैं भी उस अनंत यात्रा का छोटा-मोटा यात्री हूं। चाहता था कि जो भूल गए हैं उन्हें याद दिला दूं जो सो गए हैं उन्हें जगा दूं।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 08 Oct 2023 01:48 PM (IST)
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चिंतन धरोहर: भारत एक सनातन यात्रा है , जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है

ओशो। मेरा सपना तो एक है। मेरा अपना नहीं, सदियों पुराना, कहें कि सनातन है। पृथ्वी के इस भूभाग में मनुष्य की चेतना की पहली किरण के साथ उस सपने को देखना शुरू किया गया था। उस सपने की माला में कितने फूल पिरोए हैं। कितने गौतम बुद्ध, महावीर, कितने कबीर, कितने नानक, उस सपने के लिए प्राणों को न्योछावर कर गए। उस सपने को मैं अपना कैसे कहूं? वह सपना मनुष्य का, मनुष्य की अंतरात्मा का सपना है। हम उस सपने को भारत कहते हैं।

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भारत कोई भूखंड नहीं है, न ही कोई राजनैतिक इकाई है, न ऐतिहासिक तथ्यों का कोई टुकड़ा है। भारत है एक अभीप्सा, एक प्यास, सत्य को पा लेने की। उस सत्य को, जो हमारे हृदय की धड़कन-धड़कन में बसा है। उस सत्य को, जो हमारी चेतना की तहों में सोया है। उसका पुनर्स्मरण, उसकी पुनरुद्घोषणा भारत है।

‘अमृतस्य पुत्रः! हे अमृत के पुत्रों!’ जिन्होंने इस उद्घोषणा को सुना, वे ही भारत के नागरिक हैं।

भारत में पैदा होने से कोई भारत का नागरिक नहीं हो सकता। जमीन पर कोई कहीं भी पैदा हो, किसी देश में, किसी सदी में, अतीत में या भविष्य में, अगर उसकी खोज अंतस की खोज है, तो वह भारत का निवासी है। मेरे लिए भारत और अध्यात्म पर्यायवाची हैं। भारत और सनातन धर्म पर्यायवाची हैं। इसलिए भारत के पुत्र धरती के कोने-कोने में हैं।

भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत-पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है। इसलिए भारत ने इतिहास नहीं लिखा, उसने तो केवल उस चिरंतन की ही साधना की है। मैं भी उस अनंत यात्रा का छोटा-मोटा यात्री हूं। चाहता था कि जो भूल गए हैं, उन्हें याद दिला दूं, जो सो गए हैं उन्हें जगा दूं। चाहता था भारत अपनी आंतरिक गरिमा और गौरव को पुनः पा ले, क्योंकि भारत के भाग्य के साथ पूरी मनुष्यता का भाग्य जुड़ा हुआ है।

भारत का भाग्य मनुष्य की नियति है, क्योंकि हमने जैसा मनुष्य की चेतना को चमकाया था और हमने जैसे दीये उसके भीतर जलाए थे, जैसे फूल हमने उसके भीतर खिलाए थे, जैसी सुगंध हमने उसमें उपजाई थी, वैसी दुनिया में कोई भी नहीं कर सका था। यह कोई दस हजार साल पुरानी सतत साधना है, सतत योग है, सतत ध्यान है। हमने इसके लिए और सब कुछ खो दिया। अंधेरी से अंधेरी रात में भी हमने आदमी की चेतना के दीये को जलाए रखा है, चाहे कितनी ही मद्धिम उसकी लौ हो गई हो, लेकिन दीया अब भी जलता है।

मैंने चाहा था कि वह दीया फिर अपनी पूर्णता को ले और हर आदमी प्रकाश का एक स्तंभ बने।

दुनिया की किसी भाषा में मनुष्य के लिए ‘मनुष्य’ जैसा शब्द नहीं है। अरबी और अरबी से उपजी भाषाओं में, हिब्रू और हिब्रू से उपजी भाषाओं में, जो भी शब्द हैं, उनका मतलब होता है: मिट्टी का पुतला। ‘आदमी’ का मतलब होता है: मिट्टी का पुतला। ‘मैन’ का मतलब होता है : मिट्टी का पुतला। सिर्फ ‘मनुष्य’ में इस बात की स्वीकृति है कि तुम मिट्टी के पुतले नहीं हो, तुम चैतन्य हो, तुम अमृतधर्मा हो, तुम्हारे भीतर जीवन की परम ज्योति है। मिट्टी का दीया हो सकता है, ज्योति मिट्टी नहीं होती।

यह शरीर मिट्टी का होगा, लेकिन इस शरीर के भीतर जो जाग रहा है, जो चैतन्य है, वह मिट्टी नहीं है। जब कि सारी दुनिया मिट्टी की खोज में लग गई, तब कुछ थोड़े से लोग ज्योति की तलाश में संलग्न रहे। जब से मैंने होश सम्हाला है, हर पल, हर घड़ी एक ही प्रयत्न और एक ही प्रयास, अहर्निश एक ही चेष्टा कि किसी तरह तुम्हारी भूली संपदा की तुम्हें याद दिला दूं, कि तुम्हारे भीतर से भी अनलहक की आवाज उठे, कि तुम भी कह सको अहं-ब्रह्मास्मि, मैं ईश्वर हूं।