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चिंतन धरोहर: मन का धर्म है भावना, कैसे यह है मनुष्य के लिए एक पारसमणि?

भावना का होना नितांत आवश्यक माना गया है। मनुष्य के लिए उसकी भावनाएं पारसमणि की तरह होती है। वह अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढाल लेती है। चाहे वह धर्म-कर्म की बात हो या किसी अन्य विषय में।

By Jagran NewsEdited By: Shantanoo MishraUpdated: Mon, 13 Feb 2023 06:02 PM (IST)
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जीवन में भावनाओं का मोल क्या है, जानिए।
नई दिल्ली, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य: कई लोग चाहते हैं कि ऐसा चमत्कार हो जाए, जिससे एकाएक मनोकामनाएं पूरी हो जाएं। वे जो चाहें, तत्क्षण हासिल हो जाए और ज्यादा परिश्रम न करना पड़े। ऐसा कल्पवृक्ष इस संसार में कहीं नहीं, परंतु एक पारसमणि प्रत्येक मनुष्य के पास अवश्य है, जिसका सही उपयोग किया जा सके तो वांछित फल अवश्य प्राप्त हो सकता है। शास्त्रकारों ने इस पारसमणि का नाम रखा है- भावना। चाहे साधना-उपासना हो या कोई भी काम, सबमें भावना का होना नितांत आवश्यक माना गया है, अन्यथा पूर्ण लाभ की अपेक्षा नहीं की जा सकती। कहते हैं पारस-पत्थर लोहे को सोना बना देता है। भावना भी मनुष्य को तदनुरूप ही ढाल देती है। कहा भी गया है-'यादृषी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृषी' अर्थात जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसी ही सिद्धि मिला करती है। भावना की महिमा-महत्ता का प्रतिपादन करते हुए 'रुद्रयामल' ग्रंथ में कहा गया है :

भावेन लभते सर्वं भावेन देव दर्शनम्।

भावेन परमं ज्ञानं तस्माहं भावलंबनम्॥

अर्थात- भाव से ही सब कुछ प्राप्त होता है, भावना की दृढ़ता से ही देव-दर्शन होते हैं, भावना से ही ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए भावना का अवलंबन अवश्य लेना चाहिए। कारण यह कि :

'न काष्ठे विद्यते देवो न पाषाणे न मृण्मयो। भावेहि विद्यते देवस्तस्माद्भावस्तुकारणम्॥' तात्पर्य यह कि काष्ठ, पाषाण और मिट्टी की मूर्तियों में देवता नहीं होते। वे तो मानसिक भावों में ही रहते हैं और वही उनका कारण है। अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार, भाव मन का धर्म है। मन में ही इसकी उत्पत्ति होती है और मन में ही इसका लय होता है। अत: यहीं से शक्तियों का उदय होता है। इसलिए जिसकी जैसी भावना होती है, वह वैसी ही शक्तियों को प्राप्त करता है, वैसा ही बन जाता है। स्थूल की गति का कारण सूक्ष्म है। शरीर स्थूल है और भावनाएं सूक्ष्म। जैसी भावना-विचारणा होगी, वैसे ही कार्य में शरीर प्रवृत्त होगा। भावना का निर्मल, पवित्र, प्रबल और परमार्थमय होना ही आध्यात्मिक क्षेत्र में ऊंचा उठने का अथवा स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति करने का चिह्न है। व्यक्तिगत रूप में ही नहीं, वरन हर क्षेत्र, हर कार्य में प्रचंड और पवित्र भावना सफलता लाने में समर्थ होती है। भावना ही वह प्रमुख आधार है, जो प्रसुप्त पड़ी आंतरिक शक्तियों को जगा देती है। उनमें गति उत्पन्न करती है। भावना से साधना-उपासना के फलीभूत होने का तात्पर्य शक्तियों का गतिमान होना ही है। विज्ञानवेत्ताओं ने भी भावना की महत्ता को स्वीकार किया है और भौतिक प्रयोगों में सफलता प्राप्त की है।

नोबेल पुरस्कार विजेता प्रख्यात वैज्ञानिक डा. अलेक्सिस कैरेल ने अपनी पुस्तक 'मैन द अननोन' में लिखा है, 'भावना से कुछ ही क्षणों में मुंह के घाव, शरीर के अन्य घाव, कैंसर, मूत्राशय के रोग और टीबी आदि के रोगियों के यह रोग पूर्णत: मिटते हुए देखे गए हैं। कोढ़ एवं अन्यान्य त्वचा रोग से पीडि़त लोग स्वस्थ हुए हैं। कनाडा के सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डा। सी। अल्बर्ट ई। विल्फ भावना के माध्यम से ही चिकित्सा करते थे। भावना से सिद्धियां प्राप्त करने, आरोग्य एवं दीर्घायु प्राप्त करने तथा अन्य प्रकार के लाभ उठाने की इस वैज्ञानिक पद्धति को भारतीय ऋषि-मनीषियों ने बहुत पहले खोज लिया था, जिसकी पुष्टि आधुनिक विज्ञानवेत्ता भी कर रहे हैं। भावना का वह प्रभाव आज भी प्राप्त किया जा सकता है, बशर्ते भावना भीतर की गहराई से होनी चाहिए। पत्थर की मूर्ति में चेतना इसी गहरी भावना से जाग्रत तथा मूर्तिमंत होकर वरदान देती है। यह मनुष्य के पास सहज रूप से उपलब्ध अनमोल पारसमणि है। इसका सदुपयोग करना सीखना चाहिए।

Pic Credits: Freepik