चिंतन धरोहर: सृष्टि को मानो चैतन्य, जानिए किन कर्मों से दूर रहती हैं चिंताएं?
चिंतन धरोहर आचार्य विनोबा भावे के विचारों से जानिए पूजा का सही अर्थ क्या है और मनुष्य के लिए श्रेष्ठ कर्म किसे कहा जाता है। साथ ही जानिए कि किन कर्मों से जीवन में चिंता नहीं रहती है।
By Jagran NewsEdited By: Shantanoo MishraUpdated: Mon, 06 Mar 2023 03:41 PM (IST)
नई दिल्ली, आचार्य विनोबा भावे; गीता पुरुषोत्तम-योग बताकर कर्ममय जीवन को पूर्णता पर पहुंचाती है। वह सेव्य पुरुषोत्तम, मैं उसका सेवक और सेवा के साधन रूप सारी सृष्टि। यदि इस बात का दर्शन हमें एक बार हो जाए तो फिर और क्या चाहिए? तुकाराम कह रहे हैं कि सेवा के सिवा मुझे और कुछ नहीं चाहिए प्रभु। फिर तो अखंड सेवा ही होती रहेगी। तब 'मैं' जैसा कुछ रहेगा ही नहीं। मैं-मेरापन सब मिट जाएगा। जो होगा, सब परमात्मा के लिए। परहितार्थ जीने के सिवा दूसरा विषय ही नहीं रहेगा। गीता का यही कहना है कि अपने में से 'मैं' को निकालकर हरिपरायण जीवन बनाओ। जीवन में किसी बात की चिंता ही नहीं रहेगी।
कर्म में भक्ति का मिश्रण सही है, परंतु उसमें ज्ञान भी चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं कि ये तीनों चीजें भिन्न-भिन्न हैं। कर्म का अर्थ ही है भक्ति। भक्ति कोई अलग से लाकर कर्म में नहीं मिलानी पड़ती। यही बात ज्ञान की है। यह ज्ञान मिलेगा कैसे? त्रुटिरहित निर्मल सेवाभाव रखने से। यह सेवा का साधन चरखा, इसमें तेल डालो। यह आवाज कर रहा है। सारी सृष्टि को चैतन्य मानो। इसे जड़ मत समझो। ओंकार का सुंदर गान करने वाला यह चरखा क्या जड़ है? यह तो परमात्मा की मूर्ति ही है।
बैलों को अच्छी हालत में रखकर उनसे उचित काम लेना चाहिए। बैल भी परमात्मा की ही मूर्ति है। वह हल, खेती के सब औजार अच्छी हालत में रखो। सेवा के सभी साधन पवित्र होते हैं। पूजा करने का अर्थ यह नहीं कि गुलाल, गंध, अक्षत और फूल चढ़ाएं। बर्तनों को आईने की तरह साफ-सुथरा रखना बर्तनों की पूजा है। दीपक को स्वच्छ करना दीपक-पूजा है। हंसिये को तेज करके घास काटने के लिए तैयार रखना उसकी पूजा है। दरवाजे का कब्जा जंग खाए, तो उसे तेल लगाकर संतुष्ट कर देना उसकी पूजा है।
जीवन में सर्वत्र इस दृष्टि से काम लेना चाहिए। सेवा-द्रव्य (सेवा की वस्तुओं) को उत्कृष्ट और निर्मल रखना चाहिए। जब यह दृष्टि आ गई, तो समझ लो कि हमारे कर्म में ज्ञान भी आ गया। पहले कर्म में भक्ति का पुट दिया, अब ज्ञान का योग कर दिया, तो जीवन का एक दिव्य रसायन बन गया। गीता ने हमें अंत में अद्वैतमय सेवा के रास्ते पर ला पहुंचाया। इस सारी सृष्टि में तीन पुरुष विद्यमान हैं। एक ही पुरुषोत्तम ने ये तीन रूप धारण किए हैं। तीनों को मिलाकर वास्तव में एक ही पुरुष है। केवल अद्वैत है। यहां गीता ने हमें सबसे ऊंचे शिखर पर लाकर छोड़ दिया है। कर्म, भक्ति, ज्ञान सब एकरूप हो गए। जीव, शिव, सृष्टि सब एकरूप हो गए। कर्म, भक्ति और ज्ञान में कोई विरोध नहीं रह गया।