Dev Deepawali 2023: जानें, क्यों देवों के देव महादेव को कहा जाता है त्रिपुरारी ?
देवउठनी या देवोत्थान एकादशी के दिन देवता जाग्रत होते हैं और कार्तिक पूर्णिमा के दिन वे यमुना तट पर स्नान कर दीपावली मनाते हैं दीप प्रज्वलित करते हैं। नदियों-जलाशयों सहित समस्त स्थानों पर जगमग करते दीये न सिर्फ हमारे लिए प्रेरक संदेश लेकर आते हैं बल्कि पौराणिक काल की उन कथाओं को भी उद्घाटित करते हैं जिनके कारण देवता प्रसन्न होते हैं।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 19 Nov 2023 11:52 AM (IST)
डा. प्रणव पंड्या (प्रमुख, अखिल विश्व गायत्री परिवार, हरिद्वार)। भारतीय संस्कृति का जन्म व्यक्ति तथा समाज को सुसंस्कृत बनाने की दृष्टि से हुआ है। उसके प्रत्येक सिद्धांत, आदर्श एवं विधि-विधान की रचना इसी दृष्टि से की गई है कि उसका प्रभाव जनमानस को ऊंचा उठाने एवं परिष्कृत बनाने के लिए उपयोगी सिद्ध हो। जिस प्रकार व्यक्तिगत जीवन की वैयक्तिक मनोभूमि निर्माण के लिए भारतीय संस्कृति में षोडश संस्कारों की रचना हुई है, उसी प्रकार सामूहिक जीवन और समाज को सुसंस्कृत बनाने के लिए ऋषियों ने अनेक त्योहारों की रचना की है। प्रत्येक त्योहार एक आदर्श, सिद्धांत एवं प्रेरणा लिए हुए हैं।
समाज पर उन सिद्धांतों का असर डालने के लिए सामूहिक आयोजनों, उत्सवों आदि के द्वारा यह प्रयत्न किया गया है कि लोग उस प्रकार की प्रेरणा ग्रहण करके उसे अपने जीवन में ढालें। केवल समझाने-बुझाने, लिखने-पढ़ने, सुनने-सुनाने से वह प्रभाव नहीं पड़ता, जो बड़े प्रदर्शनों एवं उत्सवों का पड़ता है। जनसमुदाय बड़े रूप में, सामूहिकता के साथ जिस उत्सव को मनाता है, उससे उस उत्सव में भाग लेने वाले निश्चय ही प्रेरणा एवं प्रकाश ग्रहण करते हैं।
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जनजीवन को सच्चरित्र, आदर्शवाद, सेवा, सद्भावना, सहयोग और सज्जनता से परिपूर्ण करने वाली प्रेरणाओं से भर देने वाली देव दीपावली का मूल उद्देश्य भी इन्हीं प्रेरणाओं को ग्रहण करना है। इन उद्देश्यों की पूर्ति बहुत कुछ परिवार और सामाजिक स्तर पर हो सकती है, यदि इसे ठीक तरह तरह से मनाया जाए। जब तक लोग इन्हें उचित रीति से मनाते रहे, तब तक उन्हें जीवन को महान बनाने की प्रेरणा समुचित रीति से प्राप्त होती रही और मानव मात्र का मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्तर असाधारण रूप से ऊंचा उठता रहा। अब इन त्योहारों को मनाने की प्रेरणाप्रद प्रक्रियाएं कम-सी हो गई है और चिह्न पूजा जैसी मात्र बनकर रह गई हैं।
हमारे आर्ष ग्रंथों के अनुसार, त्रिपुरासुर नामक एक बलशाली राक्षस ने समाज में आतंक फैला रखा था। वह धार्मिक कृत्यों में जुटे ऋषि-मुनियों की साधना व अन्य गतिविधियों में विघ्न डालता था। ऋषि-मुनि उसके इन कृत्यों से भयभीत रहा करते थे। पौराणिक मान्यता के अनुसार, ऋषि-मुनियों ने तब अपनी इस समस्या के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की। भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध कर ऋषियों को भयमुक्त किया, जिससे वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए।
इसीलिए कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरोत्सव और त्रिपुरारी पूर्णिमा के रूप भी जाना जाता है। कहा जाता है कि उनकी इस विजय के अवसर को देव दीपावली उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा भी चली आ रही है। एक मान्यता यह भी है कि भगवान विष्णु इसी दिन मत्स्य के रूप में अवतरित हुए और वे जब श्रीकृष्ण के रूप में धरती पर आए, तब इसी दिन उन्हें आत्मबोध हुआ था। देवउठनी या देवोत्थान एकादशी के दिन देवता जाग्रत होते हैं और कार्तिक पूर्णिमा के दिन वे यमुना तट पर स्नान कर दीपावली मनाते हैं, दीप प्रज्वलित करते हैं। नदियों-जलाशयों सहित समस्त स्थानों पर जगमग करते दीये न सिर्फ हमारे लिए प्रेरक संदेश लेकर आते हैं, बल्कि पौराणिक काल की उन कथाओं को भी उद्घाटित करते हैं, जिनके कारण देवता प्रसन्न होते हैं।
देव दीपावली का सच्चा संदेश है कि यदि हम अपने राष्ट्र को अपने समाज की समृद्धिशाली संपत्ति का स्वामी बनाना चाहते हैं, तो हम सबको मिलकर दैन्य और दरिद्रता के कारणों का मूलोच्छेदन करना चाहिए। तब देश की आर्थिक स्थिति के साथ समाज विकसित और सुदृढ़ हो जाएगा। हमारे व्यापार और उद्योग धंधे का विकास होगा, प्रगतिशीलता का प्रवाह हमारे देश की तरफ होगा, तभी हम सब सुख और वैभव का जीवन व्यतीत कर सकेंगे। हम इसे सच्चे अर्थों में राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक व आध्यात्मिक हितों पर विचार करने और उसका विकास करने का साधन बना दें।
यह भी पढ़ें: सनातन संस्कृति में विचारों, विश्वासों और खोजने की विविधता रही है हमें अपनी संस्कृति का पुनरुत्थान करके, भारतीय जनमानस को प्राचीनकाल जैसे उच्च स्तर पर पहुंचाना है और देव दीपावली सहित सभी हिंदू त्योहारों एवं पर्वों को मनाने की उस प्राचीन परिपाटी को आगे बढ़ाना चाहिए, जिसका हमारे ऋषि मुनियों ने समाज के लिए आदर्श प्रस्तुत किया था। भारतीय समाज में हिंदुओं का जीवन धर्ममय होता है और सभी क्रियाकलाप धर्म की पूर्ति के लिए होते हैं। यह बात की सत्यता तभी समझी जा सकती है, जब हम अपने व्रतों, उत्सवों और त्योहारों के मूल तत्व को हृदयंगम करके सच्चे हृदय से उनको मनाएं और उसके अनुसार अपना आचरण भी रखें। हमारे ऋषि-मुनियों व पूर्वजों ने पर्वों, त्योहारों, उत्सवों की स्थापना इसीलिए की थी कि उनके द्वारा हमको अपने धार्मिक कर्तव्यों का स्मरण होता रहे और हम सत्य, न्याय, त्याग, परोपकार के सिद्धांतों पर चलकर अपना और अपने आसपास वालों का हित साधन करते रहें।