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Navadha Bhakti: भगवत्प्राप्ति और आत्मीय सुख के लिए भक्त रोजाना करते हैं मंत्र जप

अहंकारी व्यक्ति का भजन अपने बल पौरुष का अनावश्यक बखान ही होता है। संसार में परस्पर विद्वेष विरोध और गतिरोध का मात्र एक ही कारण है कि हम अपने अहंकार के आगे किसी को नहीं गिनते हैं कदाचित हम यह भी भूल जाते हैं कि हमारी श्रेणी मनुष्यों में है। भगवान की भक्ति में पहली शर्त है कि हमारे ज्ञान भक्ति और कर्म में व्यावहारिकता और दृढ़ता है या नहीं!

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 19 Aug 2024 04:40 PM (IST)
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Navadha Bhakti: साधना का अभिन्न भाग है जप

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। मंत्र जाप, भगवान पर अटूट विश्वास और उनके गुणों का चिंतन ही भजन है। ज्ञान-भक्ति-कर्म की त्रिवेणी के पश्चात जब संसार से विरत होकर साधक भगवान में अनुरक्त होता है, तब जीवन में वेद प्रकाश का समुद्र अनंत रूप ले लेता है। पंचम भजन सो बेद प्रकासा। कर्म में आलस्य और प्रमाद का अभाव हो, भक्ति में पुरुषार्थ का अहंकार न होकर ईश्वर की कृपा का अनुभव हो। ज्ञान में सद् असद् का ज्ञान हो। क्या कर्म है क्या अकर्म, दोनों का सम्यक ज्ञान ही वेद का प्रकाश है। संसार में जो दिखाई दे रहा है, सब मायिक व्यवहार है। आत्मा न तो ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करता है, न भक्ति का और आत्मा में कोई कर्म भी नहीं है। वह शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वरूप है। बादलों का होना, बिजली का कड़कना, धूप-छांव, प्रकृति विपर्यय, जन्म-मृत्यु, आकाश वो सबका दृष्टा है। वही अनंत, अनंता, नियंता और अभियंता है। वही ब्रह्म जब अवतार लेता है तो वह सब कुछ स्वीकार करके भी स्व स्वरूप में ज्यों का त्यों स्थित रहता है। भक्ति के उपदेश के द्वारा भगवान ने वही प्रक्रिया शबरी के समक्ष प्रस्तुत की, जिसे हम नवधा भक्ति के रूप में शिरोधार्य करते हैं।

साधना का अभिन्न भाग है जप। मनु सतरूपा, भगवती पार्वती, भक्त प्रह्लाद, सुतीक्ष्ण जी, हनुमान जी, भरत जी आदि भगवान के जितने भी भक्त हुए हैं, उन्होंने भगवान की प्राप्ति के लिए किसी न किसी मंत्र का अवलंबन लिया है। मंत्र एक परमाणु शक्ति की तरह है, जो हमारे विश्वास, एकाग्रता, निष्ठा सद्संकल्प पर आधारित परम शक्ति है। घोर तपस्या कर मंत्र शक्ति का संग्रह और उपयोग राक्षसों ने भी किया है। मंत्र वह शक्ति है, जिसका उपयोग और दुरुपयोग दोनों किया जा सकता है। अंतर केवल इतना है कि भक्त उस शक्ति का सदुपयोग भगवत्प्राप्ति और आत्मीय सुख के लिए करता है और दूषित वृत्ति युक्त राक्षस उसी मंत्र शक्ति का दुरुपयोग तमाम सांसारिक सुखों को केवल इच्छा पूर्ति और समाज को कष्ट देकर अनावश्यक अहं प्रदर्शन में करते हैं।

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इसीलिए शबरी जी से प्रभु ने मंत्र जप के साथ विश्वास और भजन शब्द को जोड़ दिया। राक्षसों को भगवान की शक्ति पर तो पूरा विश्वास होता है, पर वे भगवान की कृपा को स्वीकार न करके अपने बल तथा पौरुष पर विश्वास करते हैं। रावण ने कह भी दिया-होइ भजन नहिं तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ ऐहा।। रावण का यही मंत्र जाप है कि वह मन, वचन, कर्म से यह दृढ़ निश्चय कर चुका है कि मुझसे भजन नहीं होगा, यह मेरा दृढ़ निर्णय है। भगवान कहते हैं कि मुझ पर विश्वास और मेरा भजन करो, जबकि लंकेश उससे विपरीत है।

अहंकारी व्यक्ति का भजन अपने बल पौरुष का अनावश्यक बखान ही होता है। संसार में परस्पर विद्वेष, विरोध और गतिरोध का मात्र एक ही कारण है कि हम अपने अहंकार के आगे किसी को नहीं गिनते हैं, कदाचित हम यह भी भूल जाते हैं कि हमारी श्रेणी मनुष्यों में है। देशभक्ति और भगवान की भक्ति में पहली शर्त है कि हमारे ज्ञान, भक्ति और कर्म में व्यावहारिकता और दृढ़ता है या नहीं!

राम बिलोकनि बोलनि चलनी। श्रीराम का बोलना भी भक्ति का उपादान है। श्रीराम का देखना, निहारना भी भक्ति में सहयोगी है। वे कैसे चलते और लोगों से मिलते हैं, यह सब भक्ति के ही उपादान हैं, जिसको भगवान श्रीराम ने स्वयं अपने व्यवहार से करके दिखाया। वही रामराज्य है, वही रामत्व और उनकी अखंडता और अनंतता है। तभी श्रीराम वेदों द्वारा स्तुत्य हुए। वेदों में राम के ही निर्गुण स्वरूप का दर्शन है और पुराणों में उन्हीं वेदों का सगुण स्वरूप वर्णित है।

हमारी वाणी का जनमानस पर क्या प्रभाव पड़ा, इसकी समझ केवल भक्ति और ज्ञान से ही संभव है, क्योंकि ज्ञान और भक्ति दोनों एक ही हैं! जब हनुमान जी रावण को समझाते हैं, तो रावण की प्रतिक्रिया तुलसीदास जी लिखते हैं : बोला बिहँसि महा अभिमानी। मिला हमहिं कपि गुरु बड़ ग्यानी। महा अभिमानी शब्द इसलिए लिखा गया, क्योंकि अपने हित की बात में भी जब दूसरे में दोष दिखाई दे तो समझना चाहिए कि वह महा अभिमानी है।

संसार के इतिहास में जितने भक्त, ज्ञानी और महाज्ञानी हुए हैं, उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि दूसरे को सुनते हैं, समझते हैं और उतना बोलते हैं जितने की आवश्यकता होती है। यही आत्मसंयम है। जो भगवान की भक्ति में लीन और आत्मोद्धार के लिए प्रवृत्त रहता है, ऐसा साधक कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है। वहीं अहंकारी कहां कुछ सुनता है, कहां कीर्तन करता है, कहां किसी को मानता है, चरणों की सेवा करता है, किसका दास बनने को तैयार होता है? किसके सामने अपने को निवेदित करता है?

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अहंकारी और भक्त दोनों के लक्षण एक जैसे होते हैं। पर अंत मे एक अहंकारी कहलाता है और एक भक्त। अहंकारी और भक्त बोलकर भी बोलते हैं, चुप रहकर भी बोलते हैं, कार्य करते हुए भी बोलते हैं, चल करके भी बोलते हैं, सोच कर भी बोलते हैं। जो क्रियाएं भक्त करता है वही अभिमानी करता है, पर दोनों विपरीत परिणाम को जन्म देते हैं।

भगवान के प्रति विश्वास के साथ मंत्र जप की अनंत महिमा है। शबरी जी वही साधना कर रही थीं। उन्हें गुरु के वचनों और गुरु पर जो विश्वास था और भगवान की प्राप्ति की जो चरम अभिलाषा थी, वही ललक उनका मंत्र जाप था। उनमें मंत्र जप, विश्वास और भजन की त्रिवेणी थी। एकाग्रता, निष्ठा और भगवत विश्वास की इन तीन धाराओं ने जाकर शबरी को श्रीराम के कृपा समुद्र में मिला दिया। शबरी के समक्ष  भगवान दो होकर आए और भगवान के पास जो एक वेणी रावण के द्वारा चुरा ली गई थी सीता जी के रूप में, उनको प्राप्त करने का मार्ग शबरी जी ने बता दिया। भगवान जिस त्रिवेणी को लेकर अयोध्या से चले थे, उसकी पूर्णता में भक्तिमती शबरी का ही योगदान था।