Navadha Bhakti: लाभ और संतोष का ठीक समय पर उपयोग करना ही भक्ति है
संत समागम से बढ़कर कोई और लाभ नहीं है। संतोष वर्तमान है असंतोष भविष्य है। दुख अतीत है। भगवान श्रीराम शबरी से आठवीं भक्ति के प्रतिपादन में लाभ के साथ संतोष को जोड़ देते हैं। अहल्या ने अपने पति ऋषि गौतम के शाप के फलस्वरूप जब भगवान के श्रीचरणों को अपने सिर पर धारण किया तो उन्हें गौतम ऋषि के क्रोध और शाप की विस्मृति हो गई।
स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। संसार में अधिकांश लोग असंतोष के कारण विषादग्रस्त देखे जाते हैं। असंतोष तो कर्म में होना चाहिए, पर विडंबना है कि असंतोष होता है परिणाम में। ज्ञान को स्वीकार करना सबसे बड़ी विशेषता है, जिसके लिए हमारे हृदय में भगवद्भक्ति की आवश्यकता है। भक्ति प्रदर्शन का विषय नहीं है, भक्ति हृदय के अंतस्थ में रहने वाला वह सूक्ष्म पदार्थ है, जो अनंत सुखों, आनंद तथा मुक्ति का कारक है। जो श्रद्धा और विवेक के संयोजन से सत्संग में दूसरे को सुनकर आता है। भगवान श्रीराम अयोध्या से लंका तक और लंका से अयोध्या तक की अपनी संपूर्ण यात्रा में वेद-पुराणों की कथाओं के श्रवण और कथन क्रम को अभंग रखते हैं। अविरल चलने वाला सत्संग ही उनकी यात्रा में चलने वाले सहयोगियों के अंदर परम सात्विक अनुशासन को बनाए रखता है।
सीता जी की खोज में जंगल में चलते हुए बंदर भूख-प्यास से व्याकुल होकर अपनी मृत्यु को देखने लगते हैं, तब सूर्य के ताप से जिस गीध संपाती के पंख कट चुके थे, वह बंदरों से कहते हैं कि पापी भी जिन राम का स्मरण कर इस भवसागर को पार कर लेते हैं, तुम उनके सेवक होकर भी क्या कायरों की तरह शरीर छोड़ने की बात कर रहे हो?पापिउ जाकर नाम सुमिरहीं।
अति अपार भवसागर तरहीं॥तासु दूत तुम्ह तजि कदराई
राम हृदय धरि करहु उपाई॥अरे पुरुषार्थ करो, चिंता मत करो, सीता जी मिलेंगी। कर्म-पुरुषार्थ करके ही सीता जी को पाया जा सकता है, यही था वह सत्संग जिसने बंदरों के प्राणों की रक्षा की। इतना ही नहीं, सूर्य के ताप से जब संपाती के पंख जल गए थे, तब वह अपने को असहाय मानकर जंगल में विलाप कर रहे थे, तब संत चंद्रमा मुनि ने आकर उन्हें समझाया कि भले ही पक्षी का सबसे बड़ा बल उसके पंख होते हैं और तुम्हारे वे पंख जल गए हैं, पर आंखें तो बची हैं! जो नहीं रहा, उसके दुख के कारण जो हमारे पास बचा है, उसकी शक्ति को हम भूल जाते हैं। परिणामस्वरूप स्वयं को असहाय मानने लगते हैं। सत्संग में चंद्रमा मुनि ने संपाती से कहा कि अपनी आंखों का प्रयोग तुम परोपकार में करो, मैं तुम्हें समुद्र के किनारे पहुंचाए देता हूं, तुम वहीं से सीताजी को देखकर बंदरों को विश्वास दिला देना कि सीता जी जीवित हैं।
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पुरुषार्थ से बचना कायरता है तथा परम पुरुषार्थ करके दूसरे के अनुभव का लाभ लेकर जब कार्य किया जाता है, तो व्यक्ति को परम पद की प्राप्ति होती है। लाभ और संतोष दोनों का ठीक समय पर उपयोग करना ही भक्ति है। हमें कुछ न करना पड़े, सब बैठे-बैठे मिल जाए, यह भक्ति नहीं है। यह तो कर्म से च्युत हुए पलायनवादी लोगों के लक्षण हैं और कर्म में भगवान की कृपा न दिखाई देकर केवल अपने ही बल-पौरुष के प्रदर्शन का अहंकार होता है। कर्म में पुरुषार्थ तथा परिणाम में संतोष और कृपा की अनुभूति ही भक्ति है। आठवीं भक्ति का उपासक जब जो मिल जाए, उसमें संतोष करता है। वह कभी भी दूसरों के दोष दर्शन करके अपने सुंदर वर्तमान को नहीं बिगाड़ता है। इसीलिए भगवान शंकर भगवती पार्वती जी से कहते हैं कि
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान।।संत समागम से बढ़कर कोई और लाभ नहीं है। संतोष वर्तमान है, असंतोष भविष्य है। दुख अतीत है। भगवान श्रीराम शबरी से आठवीं भक्ति के प्रतिपादन में लाभ के साथ संतोष को जोड़ देते हैं, साथ ही परदोष दर्शन का निषेध भी करते हैं। अहल्या ने अपने पति ऋषि गौतम के शाप के फलस्वरूप जब भगवान के श्रीचरणों को अपने सिर पर धारण किया तो उन्हें गौतम ऋषि के क्रोध और शाप की विस्मृति हो गई। भगवान के चरणों का जो स्पर्श मिला, वह उस सुख में डूब गईं। संत विश्वामित्र की कृपा से प्राप्त इस सुख से भरी और छलकती हुई अहल्या कहती हैं कि मेरे पति ने मुझे शाप देकर मेरा परम उपकार किया।
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मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।देखेउं भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
जिन चरणों से गंगा जी का प्रादुर्भाव हुआ तथा शंकर जी ने उन गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर शिरोधार्य किया, आज वे ही चरण मुझ अधम के सिर पर आ गए तो जो लाभ काम को मारने वाले शंकर जी को मिला, आज प्रभु की कृपा तो देखो कि वही लाभ कामग्रस्ता अहल्या को मिल गया। भगवान की कृपा और उस कृपा की अनुभूति ही भगवान की वास्तविक भक्ति है। यदि अहल्या यह कहती कि प्रभु श्रीराम जी तो बहुत अच्छे हैं, पर मेरे पति गौतम बहुत क्रोधी हैं, जिन्होंने मुझे शाप दे दिया, तो वह भगवान की कृपा की वास्तविक अनुभूति नहीं मानी जाती। परदोष का अभाव और जो सुख कृपा लाभ मिला है, उसमें डूब जाना ही परम भक्ति है। काकभुशुंडि जी कहते हैं कि :
लाभु कि किछु हरि भगति समाना।जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना॥यही लाभ रावण के द्वारा छाती पर चरण प्रहार सहकर भक्त विभीषण को अनुभव हुआ। उन्हें लगा कि यह मेरा अहोभाग्य है कि आपने मेरा अपमान किया। यदि वे रावण के प्रति हिंसा में लग जाते तो जितने समय में भगवान की शरणागति होकर भगवान के चरणों की प्राप्ति हो गई, उसके स्थान पर दोबारा किसी और प्रकार का असम्मान हो जाता। वे कहते हैं :
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज।।जीवन में कभी-कभी हानि बहुत बड़े लाभ को लेकर आती है। यह विभीषण को तब पता चला, जब लंका में उनका सत्संग हनुमान जी से हुआ और उन्हें यह विश्वास हो गया कि जब संत मिल गए तो भगवान अवश्य मिल जाएंगे। भगवत्प्राप्ति का लाभ कभी कम नहीं होता है।