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देवर्षि नारद जयंती पर विशेष: भक्ति-सत्य-सन्मार्ग के संवाहक

भगवान के भक्तों में भक्ति विश्वास और समर्पण के संस्कारों का बीजारोपण कर भक्ति भक्त और भगवंत को एकाकार करने की भूमिका नारद जी की ही है। भगवान की लीला न समझ पाने के कारण दिग्भ्रमित हो जाने वाले हों उन्हें सन्मार्ग पर लाने का कार्य नारद जी करते हैं।

By Jagran NewsEdited By: Shantanoo MishraUpdated: Sun, 30 Apr 2023 12:28 PM (IST)
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देवर्षि नारद जयंती पर पढ़िए स्वामी मैथिलीशरण द्वारा विशेष लेख।

नई दिल्ली, स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन) | नारद जयंती 2023: भगवान के कल्याणकारी, करुणामय संकल्प को मूर्त रूप देने का कार्य भक्तिरसिकाचार्य नारद जी ही करते हैं। उन्होंने वेदव्यास जी को श्रीमद्भागवत की रचना करने की प्रेरणा देकर श्रीकृष्ण प्रेमामृत के अनंत समुद्र में सराबोर कर दिया। जब कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास को लगा कि विश्वकोश कहे जाने वाले इतने बड़े ग्रंथ महाभारत की रचना के पश्चात भी मुझे परिपूर्णता और आत्मीय सुख अनुभव नहीं हो रहा है, तो महर्षि नारद ने कहा कि वस्तुत: आपने इस कृति में सब कुछ लिख दिया है, पर जो प्राणीमात्र के सुख और आनंद का आधारभूत कृष्णतत्व है, वह इस कृति में मुखर नहीं हो रहा है। नारद जी के निवेदन पर व्यास जी ने श्रीमद्भागवत में रस तत्व के आश्रय का आधार गोपियों के प्रेम को बनाया। नारद भक्ति सूत्र में जो भक्ति का तृतीय स्वरूप है, उसमें नारद जी ने भक्ति को 'अमृतस्वरूपा च' ही कहा। वेदव्यास की इस रचना में अमृततत्व गोपी गीत है, जो अशरीरी भाव है जिसमें शुद्ध विदेह प्रेम, देह धरकर आ जाता है। जिन कारणों से लोगों के मन में नारद जी जैसे भक्तों के प्रति अनावश्यक भ्रम की स्थिति होती है, वे कारण शुद्ध आध्यात्मिक हैं। उनका उद्देश्य पवित्र है। किंतु सांसारिक दृष्टि से देखने का अभ्यस्त होने के कारण लोग स्वयं को ही भक्त और भगवान में भी आरोपित कर देते हैं।

भगवान को जो कार्य अस्त्र-शस्त्र और पराक्रम करके संपन्न करने पड़े, उन्हीं कार्यों को नारद जी ने अपनी पवित्र परिशुद्ध मेधा से कर दिखाया। कंस की बुद्धि को पलटने में नारद जी की ही कार्ययोजना थी। दुर्योधन को कटि वस्त्र पहनवाकर उसके वध का मार्ग नारद जी ने ही बनाया। अन्य राक्षसों का वध करने में प्रेरकशक्ति के रूप में नारद जी ही हैं। नारद जी कर्तृत्व और भोक्तृत्व से ऊपर हैं। वे भक्ति रस के आचार्य हैं। उनका अपना न तो कोई संकल्प है और ना ही उनके संपूर्ण अनंतलीलाकाल में नारायण, राम और कृष्ण का कोई विकल्प है। नारद जी को आधार और माध्यम बनाकर भगवान अपनी दिव्य लीलाओं का सुसंपादन करते हैं। भगवान के प्रति नारद जी की जो शरणागति है, रामायण काल में उसकी तुलना तो केवल श्रीभरत जी, श्रीलक्ष्मण जी और हनुमानजी से ही की जा सकती है, जिनके संकल्प केवल राम हैं। नारद जी तो ऋत सत्य के संवाहक हैं। नारद जी वह किरण हैं, जो रामचंद्र और कृष्णचंद्र की ही किरणों के प्रचारक और प्रकाशक हैं। हर कार्य में उनका उद्देश्य मात्र जीव का आध्यात्मिक कल्याण होता है।

भगवान के आधार और आश्रय के बिना कुछ भी संभव नहीं। वस्तुत: भगवान के साथ बंधन को ही मुक्ति मानना चाहिए। यही भक्ति है और यही वास्तविक मुक्ति। नारद जी भक्त को भक्ति बांटते हैं और ज्ञानी को मुक्ति बांटते हैं। अंत में वे यह निष्कर्ष देते हैं कि ज्ञान का फल भक्ति है और भक्ति का चरम उत्कर्ष साधक की ज्ञान में स्थिति है। भगवान के जितने भी भक्त हुए हैं, उनमें भक्ति, विश्वास और समर्पण के संस्कारों का बीजारोपण कर भक्ति, भक्त और भगवंत को एकाकार करने की भूमिका नारद भक्ति सूत्र के प्रणेता नारद जी की ही है। चाहे वे भक्त प्रह्लाद हों, ध्रुव पार्वती, सीता, रुक्मणी, गरुड़ हों, या फिर भगवान की लीला न समझ पाने के कारण दिग्भ्रमित हो जाने वाले जयंत हों, उन्हें सन्मार्ग पर लाने का महान कार्य नारद जी ही करते हैं। भगवती पार्वती जब शिव को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थीं, तो सप्तर्षियों ने उन्हें इस हठ को त्यागने के लिए कहा। पार्वती जी ने गुरुनिष्ठा प्रस्तुत करते हुए कहा कि स्वयं शंकर जी भी यदि आकर सौ बार मना करें तो भी अपने गुरुदेव नारद जी के उपदेश को न तो मैं भूल सकती हूं और ना ही टाल सकती हूं, क्योंकि उन्होंने ही मेरा हाथ देखकर शंकर जी के साथ विवाह की बात कही थी :

तजउं न नारद कर उपदेसू।

आपु कहहिं सत बार महेसू।।

इसी तरह श्रीसीता जी जब गौरी पूजन के लिए पुष्प वाटिका में जाती हैं और प्रभु श्रीराम के दिव्य रूप माधुरी पर समर्पित हो जाती हैं तो तुलसीदास जी ने लिखा कि सीता जी भगवान राम के रूप पर आकर्षित कब और क्यों हुईं? कहीं पर भी देह भाव है ही नहीं :

सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।

चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत।।

सीता जी को नारद जी के वचनों की स्मृति हो उठी, जो उनके पिता विदेहराज जनक से नारद जी ने कहे थे कि तुम्हारी इस पुष्प वाटिका में जिस राजकुमार को देखकर पुत्री सीता के अनुराग का उदय होगा, वही इसका पति होगा। सीता जी और श्रीराम के शुद्ध अनुराग और शृंगार के प्रसंगों में भी नारद जी के सत्य वाक्यों को ही उद्धृत किया गया है। पार्वती जी की माता मैना तथा हिमवान के संदेह का निराकरण भी नारद जी के द्वारा ही होता है। सारे संस्कृत वांड़्मय में कहीं पर भी नारद जी अपनी इच्छा या विवेक से कोई कार्य न करके शुद्ध भगवद्प्रेरक कार्यों को ही करते हैं। अत: नारद जी सदा वंदनीय हैं।

जिमि थल बिनु जल रह न सकाई।

कोटि भांति कोउ करै उपाई।।

जैसे पृथ्वी के आधार के बिना जल रह ही नहीं सकता, उसी तरह भक्ति के अभाव में मुक्ति का सुख लेना असंभव है। नारद जी के परम आश्रय भगवान हैं और भगवान के परमआश्रय नारद जी हैं।