मन में निर्भयता और आत्मविश्वास लाती है जगत जननी मां दुर्गा की भक्ति साधना
हिंदू परंपरा के अनुसार भारतीय पर्व और त्योहारों में नवरात्रि पर्व का अत्यधिक महत्व है। यह वर्ष में दो बार आता है। दुर्गावतरण की पावन कथा भी इसके साथ जुड़ी हुई है। देवत्व के संयोग से असुर निकंदिनी महाशक्ति के उद्भव का महत्व हर युग में रहा है। युग की भयावह समस्याओं से त्राण पाने के लिए युग शक्ति के उद्भव की कामना हर मन में उठती है।
नई दिल्ली, डा. प्रणव पंड्या | वैसे तो हिंदी वर्षानुसार वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत, वसंत व ग्रीष्म- छह ऋतुएं होती हैं, लेकिन मुख्य रूप से दो ही प्रधान हैं- सर्दी व गर्मी। इन दोनों प्रधान ऋतुओं की संधि बेला को नवरात्रि की संज्ञा दी गई है। दिन और रात्रि के मिलन को संध्याकाल कहते हैं। इस महत्वपूर्ण समय को ईश्वर की आराधना, भजन, संध्या, वंदन व आध्यात्मिक साधना में लगाया जाना चाहिए, क्योंकि यह समय अत्याधिक लाभदायी और कम श्रम से अधिक फल देने वाला माना गया है। संध्या काल को पुण्य पर्व भी कहा गया है।
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आरोग्य शास्त्र के विद्वानों को विदित है कि आश्विन व चैत्र मास में जो सूक्ष्म परिवर्तन होता है, उसका प्रभाव शरीर पर कितनी अधिक मात्रा में पड़ता है। यह बदलाव स्वास्थ्य पर कई प्रकार से प्रभाव डालता है। अनेकानेक रोग, ज्वर, चेचक आदि मनुष्य पर हावी होने लगते हैं। वैद्य जानते हैं कि वमन, विरेचन, स्वेदन, वस्ति, रक्त मोक्षण आदि शरीर शोधन कार्यों के लिए आश्विन और चैत्र का महीना ही सर्वाधिक उपयुक्त होता है। ऐसे समय में ही साधना का महत्वपूर्ण पर्व आता है।
हिंदू परंपरा के अनुसार, भारतीय पर्व और त्योहारों में नवरात्रि पर्व का अत्यधिक महत्व है। यह वर्ष में दो बार आता है। दुर्गावतरण की पावन कथा भी इसके साथ जुड़ी हुई है। देवत्व के संयोग से असुर निकंदिनी महाशक्ति के उद्भव का महत्व हर युग में रहा है। युग की भयावह समस्याओं से त्राण पाने के लिए युग शक्ति के उद्भव की कामना हर मन में उठती है। अधिकांश लोग व्रत, उपवास एवं अनुष्ठान करते हैं। प्रतीक्षा रहती है कि कब नवरात्र आएं और हम साधना-अनुष्ठान के माध्यम से मनोवांछित फल प्राप्त कर सकें।
ऐसी मान्यता है कि देवी दुर्गा ने आश्विन मास में महिषासुर पर आक्रमण कर उससे नौ दिनों तक युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध किया था, इसलिए इन नौ दिनों को शक्ति की आराधना के लिए समर्पित कर दिया गया। आश्विन मास में शरद ऋतु का आरंभ हो जाता है, इसलिए इसे शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है। शक्ति स्वरूपा देवी की भक्ति साधक के मन में निर्भयता और आत्मविश्वास लाती है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय है।
यह समय गायत्री साधना के लिए भी अधिक उपयुक्त है। इन नौ दिनों में उपवास रखकर चौबीस हजार मंत्रों के जप का लघु अनुष्ठान बड़ी साधना के समान परम हितकर सिद्ध होता है। कष्ट निवारण, कामना पूर्ति व आत्मबल बढ़ाने के साथ ही साथ यह साधना सद्विवेक अर्थात् प्रज्ञा का जागरण करती है। गायत्री कामधेनु हैं। नवरात्र में जो मनोयोग पूर्वक उनकी पूजा, उपासना व आराधना करता है, माता उसे अमृतोपम दुग्धपान कराती रहती हैं।
साधक के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करके ज्ञान के प्रकाश से भर देती हैं। नवरात्र के पावन पर्व पर प्राचीन काल में एकमात्र गायत्री उपासना का प्रसंग मिलता है। विभिन्नताएं तो सामयिक देन हैं। इस पावन पर्व के साथ उच्चस्तरीय प्रेरणाएं भी जुड़ी हैं। गायत्री की शक्ति व दुर्गा का अवतरण समस्त देशवासियों का सम्मिलित स्वरूप था।
असुरों से संत्रस्त देवता ब्रह्माजी के पास जाकर निवेदन करते हैं कि हम सद्गुण संपन्न होने पर भी असुरों से क्यों हारते हैं। ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया कि संगठन और पराक्रम के अभाव में अन्य गुण निष्प्रभावी बने रहते हैं। पराक्रमी और संगठित हुए बिना संकटों से छुटकारा एवं वर्चस्व प्राप्त नहीं कर सकते। देवता सहमत हुए और संगठित पराक्रम से ही दुर्गावतरण संभव हो सका।
आज भी वही स्थिति है। देवत्व को हारते और दैत्य को जीतते हर जगह देखा जा सकता है। कारण यह है कि आज के देव पक्ष ने संगठित होने की आवश्यकता ही नहीं समझी और न कोई शौर्य-पराक्रम ही दिखाया। इसी भोलेपन को दुर्जनों ने उनकी दुर्बलता समझ लिया और निर्द्वन्द्व होकर अनाचार करना प्रारंभ कर दिया। संक्षेप में, आज की बढ़ती हुई अपराध वृत्ति के मूल में यही एक कारण है। इसीलिए इसे समूह शक्ति के जागरण का पर्व भी कह सकते हैं।
नवरात्र उपासना से यदि सज्जनता का यानी देवत्व का संगठन खड़ा हो सके, तो समझना चाहिए कि हमारी साधना सार्थक हुई। सामूहिकता की शक्ति से सभी परिचित हैं। बिखरे हुए धर्म प्रेमियों को एक झंडे के नीचे इकट्ठा और संगठित करने का प्रयास नवरात्रि की सामूहिक साधना के माध्यम से भली प्रकार सम्पन्न किया जा सकता है।
बिखराव को संगठन में, उदासी को पराक्रम में बदलने की प्रेरणा नवरात्रि के पुरातन इतिहास का अविच्छिन्न अंग है। संगठन और पराक्रम के बिना वर्तमान युग-विभीषिकाओं का कोई समाधान भी नहीं दिखता। समय की आवश्यकता को देखते हुए नवरात्रि साधना में नवप्राण और संगठित होकर कार्य करें तो सबका हित सिद्ध हो सकता है।