जीवन दर्शन: मानसिक तनाव से पाना चाहते हैं निजात, तो इन बातों को जरूर करें आत्मसात
पुरुषार्थ प्रार्थना और प्रतीक्षा तीनों के एक होने के बाद प्राकट्य होता है और सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है। जिस प्रकार पहले रात्रि होती है और उसके बाद सूर्य निकलता है उसी प्रकार रावण ने पहले जन्म लिया और राम ने बाद में। आज प्रतीक्षा का नितांत अभाव है। हम लोग प्रतीक्षा नहीं कर पाते। प्रतीक्षा का दूसरा अर्थ विश्वास है प्रभु पर भरोसे का पर्याय है प्रतीक्षा।
मोरारी बापू (प्रसिद्ध कथावाचक)। व्यक्ति को कड़ी मेहनत करनी चाहिए, सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए, फिर अपनी इच्छा पूरी करने के लिए केवल भगवान पर भरोसा करना चाहिए। एक भक्त हर शनिवार को हनुमानजी के मंदिर जाता था और सिंदूर चढ़ाकर प्रार्थना करता था कि वे उसे 10 लाख रुपये की लाटरी का विजेता बना दें। जब 40 शनिवार पूरे होने पर भी फल नहीं मिला तो वह शिकायत करने लगा। इस पर हनुमानजी ने कहा, 'अरे मूर्ख, तू पहले लाटरी का टिकट तो खरीद ले।'
लोग कुछ करने के लिए तैयार नहीं हैं और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए सिर्फ भगवान पर निर्भर रहना चाहते हैं। फल नहीं मिलता तो दुखी होने लगते हैं। हम सुखी होने के लिए दुखी हो रहे हैं, यह अमंगल है। हम दूसरों को सुखी करने के लिए दुखी हों तो वह मंगल है। ऐसा होगा तो भगवान भी प्रसन्न होंगे और हम पर कृपा करेंगे। ईश्वर हम पर कृपा करते हैं, लेकिन हम उन्हें महसूस न करके छोटी-छोटी परेशानियों पर ईश्वर को ही दोष देने लगते हैं। जो उसने हमें दिया है, उसके प्रति हमारे अंदर कृतज्ञता का भाव होना चाहिए।
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यह भाव ही भक्ति है। इससे जीवन में परिवर्तन घटित होने लगता है। समस्या चाहे व्यक्तिगत हो, सामाजिक हो अथवा वैश्विक, श्रीरामचरितमानस में उससे उबरने के तीन सूत्र बताए गए हैं- पुरुषार्थ, प्रार्थना और प्रतीक्षा। अहिल्या, शबरी, विभीषण आदि ने प्रतीक्षा की तो उन्हें प्रभु श्रीराम मिल ही गए। मानस के अनुसार, सांसारिक जीवनचर्या की समस्या हो या किसी प्रकार की मानसिक दुविधा, समाधान का प्रथम सूत्र पुरुषार्थ है।
इसका मतलब है कि हम समाधान का जितना प्रयास कर सकते हैं, हमें करना चाहिए। करते-करते जब पुरुषार्थ की पराकाष्ठा आ जाए, तब परमात्मा को पुकारना चाहिए, उनसे प्रार्थना करनी चाहिए। प्रार्थना मानस का दूसरा सूत्र है, जो हमें समस्या से उबारने में सहयोग करता है। पुकार की भी सीमा होती है, जब उसकी पराकाष्ठा हो जाए, तब हमें धैर्य रखते हुए प्रतीक्षा करनी चाहिए और आगे का सब कुछ प्रभु पर छोड़ देना चाहिए।
समस्या के हल के रूप में प्रतीक्षा अंतिम चरण है। पुरुषार्थ, प्रार्थना और प्रतीक्षा तीनों के एक होने के बाद प्राकट्य होता है और सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है। जिस प्रकार पहले रात्रि होती है और उसके बाद सूर्य निकलता है, उसी प्रकार रावण ने पहले जन्म लिया और राम ने बाद में। आज प्रतीक्षा का नितांत अभाव है। हम लोग प्रतीक्षा नहीं कर पाते।प्रतीक्षा का दूसरा अर्थ विश्वास ही है, प्रभु पर भरोसे का पर्याय है प्रतीक्षा। विश्वास अजन्मा है। विश्वास से प्रेम है। विश्वास से भक्ति है। विश्वास ही ब्रह्म है और जहां विश्वास रूपी अनन्य प्रेमार्पण है, वहां परमात्मा का प्रकट होना निश्चित है। जिसका पूरे विश्व में वास है, वह विश्वास है। और परम प्रभु तो कण-कण में विराजमान हैं। न तो विश्वास का कोई अंत है, न ही विश्वास स्वरूपम का। यदि आप विश्वास की शरण में हैं तो कृपा आज भी हो सकती है।
जीवन में अभिमान और अवसाद की स्थितियों से दूर रहने का सूत्र है कि यदि कोई भी प्रयोजन आपके प्रयासों से आपके विचारे हुए परिणाम के अनुकूल पूरा हो तो उसे ‘हरिकृपा’ मानना चाहिए। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव होना चाहिए। इससे मन में अभिमान नहीं होगा। वहीं, जब परिणाम अनुकूल न मिले तो इसे ‘हरि इच्छा’ मानना चाहिए, ताकि निराशा और अवसाद दूर रहें और पुनः प्रयास की प्रेरणा बनी रहे। मनुष्य वस्तुत: मूल रूप से शांत स्वभाव का ही है, मगर किसी कारणवश उसकी जिंदगी में अशांति आ जाती है और इसी के चलते वह विद्रोह कर बैठता है।
यह पढ़ें: ईश्वर प्राप्ति के लिए इन बातों को जीवन में जरूर करें आत्मसात: सद्गुरु सच यह है कि विद्रोह के बाद भी वह शांति ही चाहता है। गुरु अपने शिष्यों के स्वभाव से पूरी तरह से परिचित होते हैं और समय-समय पर शिष्यों को भगवान के सरल और सहज स्वभाव के बारे में अवगत कराते हैं। राम का स्वभाव क्या है? कोई अपराध करे तो भी राम को क्रोध नहीं आता। प्रभु का एक स्वभाव है कि वह कभी किसी की पीड़ा देख नहीं पाते हैं। उनके स्वभाव में करुणा है, इसलिए किसी भी परेशानी में होने पर व्यक्ति को विश्वास रखना चाहिए कि कृपा अवश्य होगी। प्रभु कृपा होने पर उसे अपना प्रभाव न मानें। कृपा करना प्रभु का स्वभाव है। कृपा हो तो ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखें। जगद्गुरु शंकराचार्य ने जो तीन चीजें दुर्लभ बताई हैं, उनमें मनुष्य शरीर को एक रखा है :
बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद्ग्रंथनि गावा। ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के पास भी ऐसा ही शरीर और मस्तिष्क था जो हमारे पास है, लेकिन ठाकुर को, विवेकानंद को, मीरा को, एकनाथ को, ज्ञानेश्वर को, तुकाराम को, रमण महर्षि को, मेहता नरसी को, कबीर को, बुद्ध को अनादि काल से चले आ रहे संतों को, फकीरों को, जैनों को जो परमात्मा का संगीत सुनाई दिया, वह हमें क्यों नहीं प्राप्त होता? मेरी समझ से इसका एक कारण हमारे जीवन में ईर्ष्या, निंदा और द्वेष का होना है, जबकि इनकी कोई आवश्यकता नहीं है।
काम, क्रोध और लोभ की तो फिर भी जीवन में सम्यक मात्रा में आवश्यकता है। आयुर्वेद कहता है शरीर में वात, पित्त, कफ सम्यक मात्रा में होना चाहिए। सम्यक मात्रा न होने पर रोग होता है। मैं आपसे पूछूं, गौर करके देखिएगा कि ईर्ष्या, निंदा और द्वेष की क्या हमें जरूरत है? कोई कारण दे सकते हैं आप? ये हमारे जीवन में कई तरह की बाधा पैदा करते हैं। इनके कारण ही हमारे अंदर कृतज्ञता का भाव पैदा नहीं हो पाता। इनकी कोई जरूरत नहीं है। ईर्ष्या की जगह हम सामने वाले के लिए शुभ की इच्छा क्यों न करें? निंदा की जगह निदान क्यों न कर सकें? वैद्य निंदक नहीं, निदानी होता है और उसी पर हमारा आरोग्य निर्धारित होता है।