Ganesh Chaturthi 2025: कब और क्यों मनाई जाती है गणेश चतुर्थी? यहां पढ़ें पौराणिक कथाएं
गणेश जी (Ganesh Chaturthi 2025) की मात्र स्तुति कर लेना या पूजा कर लेना ही पर्याप्त नहीं है हमें उनकी कथाओं के संदेशों को भी आत्मसात करना होगा। श्रीगणेश चतुर्थी हमें यही संदेश देती है कि मन को परमात्मा से जोड़ने से हम मन और इंद्रियों को जीतकर जगजीत बन जाएंगे।
ब्रह्मा कुमारी शिवानी (प्रेरक वक्ता)। किसी भी अच्छे काम का शुभारंभ करना, उसका श्रीगणेश करना कहा जाता है, क्योंकि गणपति जी को विघ्न विनाशक, दुखहर्ता, सुखकर्ता कहते हैं। सिद्धिविनायक को सिद्धिदाता कहते हैं। हर शुभ कार्य का आरंभ उनकी पूजा वा स्थापना से करते हैं।
कार्य से पहले उन्हें याद करते हैं। क्या सिर्फ याद करना या उनकी स्तुति करना ही पर्याप्त है? उस मंगलमूर्ति, विघ्नविनाशक से हम प्रेरणा लें। उनके गुण, उनकी विशेषताओं व शक्तियों को अपने जीवन में धारण करें! सिर्फ उनकी की महिमा न करें, उनसे कुछ सीखें और आत्मसात करें।
एक कथा है कि शंकर जी तप करने सुदूर पर्वत पर गए थे। इस बीच देवी पार्वती ने अपने शरीर की उबटन से एक बच्चे का निर्माण किया और उसमें प्राण डाल दिया। बच्चा जब थोड़ा बड़ा हुआ, तो एक दिन पार्वती जी ने उसे घर के बाहर खड़ा कर दिया और स्नान करने अंदर चली गईं।
उन्होंने बालक को आदेश दिया कि कोई घर के भीतर न आ पाए। उसी दिन शंकर जी वापस आ गए। बच्चे ने अपना कर्तव्य निभाया और शंकर जी को अंदर जाने नहीं दिया। शंकर जी ने क्रोधवश बालक का सिर काट दिया। पार्वती जी के बाहर आने पर शंकर जी ने अपनी गलती स्वीकार की और बालक की गर्दन पर हाथी का सिर लगा दिया और बालक का नाम गणेश रखा।
आप कहेंगे कि भगवान शंकर ने वर्षों की तपस्या के बाद भी क्रोध पर नियंत्रण नहीं पाया और मां के आदेश का पालन करने वाले बालक का सिर काट दिया, यह कैसे हो सकता है। असल में, इस कहानी के निहितार्थ गहरे हैं। इसका आध्यात्मिक भावार्थ यह है कि जब निराकार परमात्मा शिव इस पुरानी पतित कलयुगी सृष्टि को नई पावन सतयुगी संसार में बदलने हेतु अवतरित होते हैं, तो घोर अज्ञानता व देह अहंकार के कारण मनुष्य आत्माएं परमात्मा को पहचान नहीं पाते हैं।
परमात्मा शिव हमारे देहाभिमान या देह के अहंकार का सिर काटते हैं, जिससे बाकी और सभी विकारों का नाश हो जाता है। चूंकि देहाभिमान ही सभी मनोविकारों की जड़ है, इसलिए परमात्मा शिव उसे काटकर उसकी जगह प्रज्ञा वाला सिर जोड़ देते हैं और हम जैसे मानवों को श्रीगणेश जैसे गुण, शक्ति और विशेषताओं से संपन्न देव बनने का अवसर प्रदान करते हैं।
वास्तव में, गणेश जी के स्वरूप का प्रत्येक अंग हमें सही जीवन निर्माण और जीवन निर्वाह का ज्ञान देता है। जैसे कि गणेश जी का सिर बड़ा है, जो उनकी विशाल बुद्धि वा विराट प्रज्ञा का प्रतीक है। दूसरे, उनकी आंखें बहुत छोटी है, जो उनकी दूरदर्शिता को दर्शाती हैं। आपने देखा होगा, जब हम कोई दूर की चीज देखने का प्रयास करते हैं, तो हमारी आंखें छोटी हो जाती हैं।
गणेश जी का मुंह छोटा दिखाते हैं। जो बुद्धिमान होगा, वह मुंह से कम, लेकिन यथार्थ बोलेगा। गणेश जी के कान बड़े हैं, जो यह बताते हैं कि सुनना अधिक है और बोलना कम। उनके कान सूप जैसे हैं और सूप की विशेषता है कि वह अच्छी चीजों को रखता है और कचरे को फेंक देता है। इसका अर्थ है कि हम अच्छी बातों को ग्रहण करें और व्यर्थ बातों को छोड़ दें।
लोग कहते हैं कि एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो, लेकिन ऐसा होता नहीं है। जो हमने सुन लिया, वह हमारे अंदर तो जाएगा ही। क्योंकि दो कानों के बीच हमारा मस्तिष्क है, जिस पर सुनी हुई बातों का असर पड़ता है। इसलिए गणेश जी कहते हैं कि फालतू बातें सुनना ही नहीं है। आज हम इंटरनेट मीडिया, वाट्सएप ग्रुप्स आदि पर कितनी बातें सुन रहे हैं, उनमें से हम सकारात्मक बातें ग्रहण करें और नकारात्मक को छोड़ दें तो यह गणेश जी का सम्मान होगा।
गणेश जी को एकदंत कहते हैं। उनका एक ही दांत है, दूसरा टूटा हुआ है। उन्हें एकदंत कहने का अर्थ है कि जीवन से द्वैत समाप्त हो जाए और अद्वैत की स्थापना हो। जीवन में एकता, एकाग्रता व अखंडता आ जाएं। द्वैत से ही रंगभेद, धर्मभेद, जातिभेद, भाषाभेद आदि ऊंच-नीच की भावनाएं जन्म लेती हैं और समाज में लड़ाई-झगड़े, हिंसा व दुख-दर्द उत्पन्न करती हैं।
द्वैत का मूल कारण हमारा अहंकार ही है, जो कि कलियुग में चरम सीमा तक पहुंचता है। गणेश जी के स्वरूप की इस बात को अगर अमल में लाएं कि हम सब परमात्मा की संतान हैं और समान हैं तो सारे भेदभाव, घृणा, लड़ाई-झगड़े समाप्त हो सकते हैं और विश्वबंधुत्व, भाईचारा, वसुधैव कुटुंबकम्, वैश्विक शांति, अमन व धार्मिक सद्भावना का वातावरण साकार हो सकता है।
गणेश जी के दोनों ओर रिद्धि और सिद्धि को दिखाते हैं। अर्थात, कोई भी व्यक्ति परमात्मा के आध्यात्मिक ज्ञान एवं राजयोग ध्यान को श्री गणेश जी के समान जीवन में अपना लेता है, तो उसके जीवन में रिद्धि-सिद्धि की तरह समृद्धि और सफलता साथ-साथ चलेंगी। उस के लिए उसे अधिक श्रम नहीं करना पड़ेगा, अपितु उसे सिर्फ स्वयं को केवल परमात्मा के साथ जोड़कर रखना होगा। तभी उसकी जीवन-यात्रा गणेश जी की तरह निर्विघ्न, सुखद, सुरक्षित व सर्व प्राप्तियों से संपन्न हो जाएगी।
गणेश जी की एक और कहानी है। एक बार गणेश जी और उनके भाई कार्तिकेय के बीच पृथ्वी का चक्कर लगाने की प्रतिस्पर्धा हुई। गणेश जी ने सिर्फ अपनी माता-पिता भगवान शिव और माता पार्वती के चारों तरफ चक्कर लगाए। वह प्रतिस्पर्धा में सम्मिलित तो हुए, पर जीतने की होड़ में नहीं रहे। फलस्वरूप उन्हें सफलता के पीछे भागना नहीं पड़ा, मेहनत वा संघर्ष करना नहीं पड़ा।
वह केवल अपनी माता-पिता की सेवा और संसार की सेवा की भीतरी यात्रा में मस्त व व्यस्त रहे। फलस्वरूप, परमेश्वर ने उन्हें न केवल पूरी पृथ्वी का भ्रमण व अनुभव करने की प्रतिस्पर्धा में विजय घोषित किया, अपितु सारे संसार में प्रथम पूज्य देव के रूप में मान्यता प्रदान की। अत: श्रीगणेश चतुर्थी हमें यही संदेश देती है कि मन को परमात्मा से जोड़ने से हम मन और इंद्रियों को जीतकर जगजीत बन जाएंगे।
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