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गुरु पूर्णिमा 2023: 'श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः'

भारत में गुरु-शिष्य की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। डॉ प्रणव पण्ड्या बताते हैं कि शिष्य और गुरु के मध्य जो श्रद्धा के सूत्रों का सशक्त बंधन होता है। साथ ही वहा बताते हैं कि गुरु द्वारा बताए गए पद चिह्नों पर चलकर और जउनके प्रदत्त मार्गदर्शन को अपनाकर जीवन को वैसा ही श्रेष्ठतम व सार्थक बनाया जाता है।

By Jagran NewsEdited By: Shantanoo MishraUpdated: Sun, 25 Jun 2023 02:28 PM (IST)
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पढ़िए डॉ प्रणव पण्ड्या द्वारा गुरु पूर्णिमा पर विशेष।
डा. प्रणव पण्ड्या (प्रमुख, अखिल विश्व गायत्री परिवार, हरिद्वार) | गीताकार ने कहा है कि श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः अर्थात जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह स्वयं ही वही यानी उसी के अनुरूप बन जाता है। शिष्य और गुरु के मध्य जो श्रद्धा के सूत्रों का सशक्त बंधन होता है, वही लक्ष्य तक पहुंचाने और अध्यात्म की समस्त विभूतियां प्राप्त कराने में प्रमुख भूमिका निभाता है। जिस श्रद्धा के सहारे मीरा ने गिरधर गोपाल को साथ रहने के लिए विवश किया, एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मिट्टी से बनी प्रतिमा को असली द्रोण से भी अधिक समर्थ बनाया और रामकृष्ण परमहंस ने पत्थर की प्रतिमा को जीवंत काली जैसा भोग ग्रहण करने के लिए सहमत कर लिया था, वह श्रद्धा तत्व ही आत्मिक प्रगति का आधारभूत है। इसे उपार्जित करने के लिए जीवंत गुरु का आश्रय लेना पड़ता है।

जीवन के प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य के लिए सद्गुरु के अवलंबन की आवश्यकता पड़ती है। आत्मिक प्रगति के लिए सद्गुरु का आश्रय लिए जाने की बात प्राचीन आर्ष ग्रंथों से लेकर ऋषि-मुनियों तक ने कही है। आत्मिक प्रगति, भिन्न स्तर का सोच अपनाने और तदनुरूप अपने क्रियाकलापों को ढालने के लिए सशक्त अवलंबन की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य समर्थ आदर्शवादी और श्रेष्ठ स्तर के व्यक्तित्वों के साथ घनिष्ठता स्थापित करने पर ही बनता है। इसी व्यवस्था को गुरुवरण कहते हैं। गुरु के रूप में एक ऐसी सत्ता के प्रति संपूर्ण समर्पण, जो उत्कृष्टताओं और सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय हो। जिसके पद चिह्नों पर चलकर और जिसके प्रदत्त मार्गदर्शन को अपनाकर जीवन को वैसा ही श्रेष्ठतम व सार्थक बनाया जा सके। यह समर्पण सघन श्रद्धा के माध्यम से ही बन पड़ता है।

वैदिक आर्ष ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह तीन देवता धरती के माने गए हैं। ये देवता हैं माता, पिता और गुरु। माता की तुलना ब्रह्मा से की गई है, क्योंकि वह बालक को जन्म देती और पालती है। पिता को विष्णु समान माना गया है, क्योंकि वह बच्चे के भरण-पोषण, शिक्षा, चिकित्सा जैसी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति कर उसे समर्थ बनाता है। गुरु की गरिमा इन दोनों से भी ऊंची है, क्योंकि गुरु आत्मा और व्यक्तित्व में सुसंस्कारिता का आरोपण कर उसे इसी जन्म में दूसरा जन्म यानी द्विजत्व प्रदान करता है। गुरु की कृपा से ही मानव से महामानव और नर से नारायण की स्थिति तक पहुंचा जा सकता है। श्रेष्ठता के सान्निध्य के चमत्कार से ही साधारण व्यक्ति को असाधारण बनते देखा जाता है। गुरुवरण की आवश्यकता और महत्ता इसीलिए बताई जाती रही है। श्रद्धा इस प्रक्रिया का प्राण है।

प्रस्तुति : अनूप कुमार सिंह