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आइए जानें, किस तरह बर्तन से पैदा हुए थे गुरु द्रोणाचार्य

महाभारत हिन्दुओं का प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो हिन्दू धर्म के उन धर्म-ग्रन्थों का समूह है, जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। महाभारत को 'पंचम वेद' कहा गया है। यह ग्रंथ हमारे देश के मन-प्राण में बसा हुआ है। यह भारत की

By Preeti jhaEdited By: Updated: Wed, 10 Feb 2016 11:36 AM (IST)

महाभारत हिन्दुओं का प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो हिन्दू धर्म के उन धर्म-ग्रन्थों का समूह है, जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। महाभारत को 'पंचम वेद' कहा गया है। यह ग्रंथ हमारे देश के मन-प्राण में बसा हुआ है। यह भारत की राष्ट्रीय गाथा है। इस ग्रंथ में तत्कालीन भारत (आर्यावर्त) का समग्र इतिहास वर्णित है। महाभारत के बारे में अगर हम जानें तो पता चलता है कि इसमें एक से बढकर एक धुरंधर थे। गुरु द्रोणाचार्य महाभारत के एक प्रमुख पात्र थे। भीष्म के बाद द्रोणाचार्य को कौरवों का सेनापति बनाया गया था। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार, गुरु द्रोणाचार्य देवताओं के गुरु बृहस्पति के अंशावतार थे। गुरु द्रोणाचार्य के जन्म की कथा का वर्णन महाभारत में इस प्रकार है-

बर्तन से पैदा हुए थे गुरु द्रोणाचार्य

एक बार महर्षि भरद्वाज जब सुबह गंगा स्नान करने गए, वहां उन्होंने घृताची नामक अप्सरा को जल से निकलते देखा। यह देखकर उनके मन में विकार आ गया और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। यह देखकर उन्होंने अपने वीर्य को द्रोण नामक एक बर्तन में एकत्रित कर लिया। उसी में से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अपने शिष्य अग्निवेश्य को दे दी थी। अपने गुरु के कहने पर अग्निवेश्य ने द्रोण को आग्नेय अस्त्र की शिक्षा दी।

परशुराम ने दिए थे अस्त्र-शस्त्र

जब द्रोणाचार्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब उन्हें पता चला कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं। द्रोणाचार्य भी उनके पास गए और अपना परिचय दिया। द्रोणाचार्य ने भगवान परशुराम से उनके सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र मांग लिए और उनके प्रयोग की विधि भी सीख ली।बचपन के मित्र थे द्रोणाचार्य व द्रुपद

पृषत नाम के एक राजा भरद्वाज मुनि के मित्र थे। उनके पुत्र का नाम द्रुपद था। वह भी भरद्वाज आश्रम में रहकर द्रोणाचार्य के साथ पढ़ाई करता था। द्रोण व द्रुपद अच्छे मित्र थे। एक दिन द्रुपद ने द्रोणाचार्य से कहा कि- जब मैं राजा बनूंगा, तब तुम मेरे साथ रहना। मेरा राज्य, संपत्ति और सुख सब पर तुम्हारा भी समान अधिकार होगा। जब राजा पृषत की मृत्यु हुई तो द्रुपद पांचाल देश का राजा बन गया।

इधर द्रोणाचार्य अपने पिता के आश्रम में ही रहकर तपस्या करने लगे। उनका विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ। कृपी से उन्हें अश्वत्थामा नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। एक दिन दूसरे ऋषिपुत्रों को देख अश्वत्थामा भी दूध पीने के लिए मचल गया और रोने लगा। लेकिन गाय न होने के कारण द्रोणाचार्य उसके लिए दूध का प्रबंध न कर पाए। इस बात से उन्हें बहुत दुख हुआ।

जब द्रुपद ने किया द्रोणाचार्य का अपमान

जब द्रोणाचार्य को पता चला कि उनका मित्र द्रुपद राजा बन गया है तो वह बचपन में किए उसके वादे को ध्यान में रखकर उससे मिलने गए। वहां जाकर द्रोणाचार्य ने द्रुपद से कहा कि- मैं तुम्हारे बचपन का मित्र हूं। द्रोणाचार्य के मुख से ऐसी बात सुन राजा द्रुपद ने उन्हें बहुत भला-बुरा कहा। द्रुपद ने कहा कि- एक राजा और एक साधारण ब्राह्मण कभी मित्र नहीं हो सकते।

राजाओं की गरीबों से क्या दोस्ती? उस समय हम दोनों समान थे, इसलिए मित्रता थी। अब मैं धनी हूं और तुम निर्धन हो। द्रुपद की ये बात द्रोणाचार्य को अच्छी नहीं लगी और वे किसी तरह द्रुपद से अपने अपमान का बदला लेने की बात सोचते हुए हस्तिनापुर आ गए। यहां आकर वे कुछ दिनों तक गुप्त रूप से कृपाचार्य के घर में रहे।

भीष्म ने द्रोणाचार्य को बनाया कौरव-पांडवों का गुरु

एक दिन युधिष्ठिर आदि राजकुमार एक मैदान में गेंद से खेल रहे थे। तभी गेंद एक गहरे कुएं में गिर गई। राजकुमारों ने उस गेंद को निकालने की काफी कोशिश की, लेकिन वह नहीं निकली। राजकुमारों को गेंद निकालने का असफल प्रयास करते द्रोणाचार्य देख रहे थे। उन्होंने राजकुमारों से कहा कि- मैं तुम्हारी ये गेंद निकाल देता हूं, तुम मेरे लिए भोजन का प्रबंध कर दो।

द्रोणाचार्य ने अभिमंत्रित सीकों के माध्यम से कुएं में से वह गेंद निकाल दी। राजकुमारों से जब ये देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने ये बात जाकर पितामाह भीष्म को बताई। सारी बात जानकर भीष्म समझ गए कि जरूर ही वे महापुरुष द्रोणाचार्य ही हैं। भीष्म आदरपूर्वक द्रोणाचार्य को हस्तिनापुर लेकर आए और उन्हें कौरवों व पांडवों का अस्त्र विद्या सीखाने की जिम्मेदारी सौंप दी।

अश्वत्थामा को अधिक ज्ञान देना चाहते थे द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य जब कौरवों व पांडवों को शिक्षा दे रहे थे, तब उनका एक नियम था। उसके अनुसार, द्रोणाचार्य ने अपने सभी शिष्यों को पानी भरने का एक-एक बर्तन दिया था। जो सबसे पहले उस बर्तन में पानी भर लाता था, द्रोणाचार्य उसे धनुर्विद्या के गुप्त रहस्य सिखा देते थे। द्रोणाचार्य का अपने पुत्र अश्वत्थामा पर विशेष प्रेम था, इसलिए उन्होंने उसे छोटा बर्तन दिया था।

जिससे वह सबसे पहले बर्तन में पानी भर कर अपने पिता के पास पहुंच जाता और शस्त्रों से संबंधित गुप्त रहस्य समझ लेता था। अर्जुन ने वह बात समझ ली। अर्जुन वारुणास्त्र के माध्यम से जल्दी अपन बर्तन में पानी भरकर द्रोणाचार्य के पास पहुंच जाते और गुप्त रहस्य सीख लेते। इसीलिए अर्जुन किसी भी मामले में अश्वत्थामा से कम नहीं थे।

अर्जुन को दिया था दिव्यास्त्र

एक दिन द्रोणाचार्य गंगा नदी में स्नान कर कर रहे थे, तभी उनका पैर एक मगरमच्छ ने पकड़ लिया। द्रोणाचार्य स्वयं उससे छूट सकते थे, लेकिन उन्होंने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए ऐसा नहीं किया। अपने गुरु को इस हालत में देख सभी शिष्य घबरा गए। तभी अर्जुन ने अपने बाणों से उस मगर को मार दिया। प्रसन्न होकर द्रोणाचार्य ने अर्जुन को ब्रह्मशिर नाम का दिव्य अस्त्र दिया और उसका प्रयोग कब और कैसे करना है, ये भी बताया। द्रोणचार्य ने ही अर्जुन को वरदान दिया था कि संपूर्ण पृथ्वी पर तुम्हारे जैसा धनुर्धर नहीं होगा।

गुरुदक्षिणा में ये मांगा था द्रोणाचार्य ने

जब कौरव व पांडवों की शिक्षा पूरी हो गई तब द्रोणाचार्य ने उनसे कहा कि- तुम पांचाल देश के राजा द्रुपद को बंदी बना कर मेरे पास ले आओ। यही मेरी गुरुदक्षिणा है। पहले कौरवों ने राजा द्रुपद पर आक्रमण कर उसे बंदी बनाने का प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। बाद में पांडवों ने अर्जुन के पराक्रम से राजा द्रुपद को बंदी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के पास लेकर आए।

तब द्रोणाचार्य ने उसे आधा राज्य लौटा दिया और आधा अपने पास रख लिया। इस प्रकार राजा द्रुपद व द्रोणाचार्य एक समान हो गए। राजा द्रुपद ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक ऐसा यज्ञ किया, जिससे उसे द्रोणाचार्य को मारने वाला पुत्र प्राप्त हो। उस यज्ञ से राजकुमारी द्रौपदी व राजकुमार धृष्टद्युम्न प्रकट हुए।

भीष्म के बाद सेनापति बने थे द्रोणाचार्य

जब कौरवों व पांडवों में युद्ध शुरू हुआ, उस समय कौरव सेना के सेनापति भीष्म थे। भीष्म के बाद दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को अपना सेनापति बनाया। सेनापति बनते ही द्रोणाचार्य ने पांडवों की सेना का संहार करना शुरू किया। द्रोणाचार्य ने पांडव सेना के अनेक वीरों का वध कर दिया। वे रोज नए-नए चक्रव्यूह बनाकर पांडवों की सेना का सफाया करने लगे। द्रोणाचार्य द्वारा बनाए गए चक्रव्यूह में फंसकर ही अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु का वध हुआ था।

छल से हुआ था वध

कौरव-पांडवों के युद्ध में द्रोणाचार्य कौरवों की ओर थे। जब पांडव किसी भी तरह उन्हें हरा नहीं पाए तो उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य के वध की योजना बनाई। उस योजना के अनुसार भीम ने अपनी ही सेना के अश्वत्थामा नामक हाथी को मार डाला और द्रोणाचार्य के सामने जाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि अश्वत्थामा मारा गया। अपने पुत्र की मृत्यु को सच मानकर गुरु द्रोण ने अपने अस्त्र नीचे रख दिए और अपने रथ के पिछले भाग में बैठकर ध्यान करने लगे। अवसर देखकर धृष्टद्युम्न ने तलवार से गुरु द्रोण का वध कर दिया।