जीवन दर्शन: शब्द की शक्ति सीमा में रहते हुए भी असीमित है
कृष्ण की बांसुरी की ध्वनि जहां गोपियों को घरों से बाहर खींच लाती है पशु पक्षियों को वशीभूत कर लेती है वहीं राग-रागनियों पर बादल बरस जाते हैं बुझे दीप जल उठते हैं। प्राचीन ध्वनि मीमांसकों का कहना है कि ध्वनियों शब्दों और वाणी का उच्चारण यदि ठीक-ठीक न किया गया तो वह वक्ता और श्रोता दोनों के लिए अनर्थकारी भी हो सकता है।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 02 Sep 2024 05:02 PM (IST)
बल्लभ डोभाल (आध्यात्मिक चिंतक)। मनुष्य को ही वाणी का योग्य अधिकारी बताया गया है। वाणी को नाद और नादब्रह्म भी कहा जाता है। यदि नाद न होता तो इस गूंगी सृष्टि का क्या अर्थ रह जाता। नाद में जागृति है और सृष्टि के रचनाक्रम में सर्वाधिक महत्व वाणी का ही है। सारे शब्द, अक्षर, जो ध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, वे नाद के ही मूर्त रूप हैं। ऋग्वेद में नाद का भाषा बनने तक की स्थितियों का अद्भुत और विषद वर्णन मिलता है। शब्द और वाणी की शक्ति को महर्षि पतंजलि ने व्यापक रूप में प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार, पदार्थ का बोध कराने वाली जो ध्वनि है, उसी को व्यवहार में शब्द कहा जाता है।
शक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का माध्यम शब्द ही है। प्राचीन विद्वानों की मान्यता है कि शब्द की शक्ति सीमा में रहते हुए भी असीमित है, इस कारण वहां शब्द को आध्यात्मिक माना गया है। विश्व में ऐसा कोई ज्ञान नहीं, जो वाणी के प्रकाश से दूर हो। शब्द केवल प्रेम, विद्वेष, क्रोध, वात्सल्य आदि भावों को ही प्रकट नहीं करता, अपितु यह ज्ञान भी कराता है कि उसका उच्चारण करने वाला स्त्री है या पुरुष, पक्षी है या जानवर, अच्छा है या बुरा। मत्स्य पुराण में वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर को मंत्र माना गया है, जिसका शुद्ध उच्चारण ही विघ्न बाधाओं को दूर करने वाला बताया गया है।
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वहां कहा गया है कि कोई अक्षर ऐसा नहीं, जिसमें मंत्र की शक्ति न हो। कोई पदार्थ ऐसा नहीं, जिसमें औषधि के गुण न हों और कोई मनुष्य ऐसा नहीं, जिसमें कोई गुण न हो। यदि कमी है तो यह कि उनमें गुणों की पहचान कर उनसे लाभ लेने वाले ही नहीं मिलते। प्राचीन चिकित्सा विज्ञान में मंत्र चिकित्सा का सूत्रपात हुआ था, जो शब्दों और ध्वनियों पर ही आधारित थी। वहां चिकित्सक की मानसिक शक्ति ही ध्वनि पर सवार होकर मंत्र बन जाती थी, जो अनेक प्रकार के रोग-शोक को दूर करने की क्षमता रखती थी। प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रंथों में भी ऐसे कूट मंत्रों की कमी नहीं, जो अक्षर और ध्वनियों के माध्यम से कामनाओं की पूर्ति का माध्यम बनते हैं। ध्वनि की शक्ति बड़ी प्रबल है।
कृष्ण की बांसुरी की ध्वनि जहां गोपियों को घरों से बाहर खींच लाती है, पशु पक्षियों को वशीभूत कर लेती है, वहीं राग-रागनियों पर बादल बरस जाते हैं, बुझे दीप जल उठते हैं। प्राचीन ध्वनि मीमांसकों का कहना है कि ध्वनियों, शब्दों और वाणी का उच्चारण यदि ठीक-ठीक न किया गया तो वह वक्ता और श्रोता दोनों के लिए अनर्थकारी भी हो सकता है। इसलिए बात को कहने में सच्चाई, एकाग्रता, दृढ़ता और प्रबल इच्छाशक्ति का होना जरूरी है। इसके विपरीत असत्य, अशुद्ध और अनर्गल भाषण से आत्मशक्ति क्षीण होती है, आयु घटती है और कई प्रकार के मानसिक विकार आदमी को घेर लेते हैं।
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आचार्य पाणिनी ने भी वाणी के मिथ्या और अनुचित प्रयोग को घातक माना है। सारा खेल वाणी का है। प्रेम की वाणी से प्रेम उपजेगा, क्रोध की वाणी क्रोध पैदा करेगी। दुर्योधन के प्रति द्रौपदी के एक वाक्य ने महाभारत खड़ा कर दिया, इसलिए वाणी का उपयोग बड़ी सावधानी से करना चाहिए। अपनी संहिता में आचार्य आत्रेय पुनर्वसु लिखते हैं कि मिथ्या भाषण से बढ़कर कोई पाप नहीं। जहां सामाजिक स्तर पर मिथ्या भाषण होता है, उस राष्ट्र को देवता छोड़ जाते हैं और रोग-व्याधियां उस राष्ट्र का विनाश कर डालते हैं।