Jeevan Darshan: आत्मनिंदा से कम होती है स्वयं की ऊर्जा, इन आदतों का करें त्याग
जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करना सफल जीवन का मंत्र हैं लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं कि सब में हम स्वयं भी आते हैं। अत सर्वप्रथम स्वयं को स्वीकार कीजिए। क्योंकि जब हम खुद को स्वीकार कर नहीं पाते तो स्वयं से असहमत होते हैं स्वयं से घृणा करने लगते हैं। इससे हमारा आभामंडल नकारात्मक हो जाता है।
ब्रह्मा कुमारी शिवानी (आध्यात्मिक प्रेरक वक्ता)। मन की शांति, संबंधों में मधुरता तथा जीवन में आनंद के लिए स्वयं को व अन्य लोगों को स्वीकार करना न सिर्फ एक गुण है, बल्कि कला व आपकी शक्ति है। जो जैसा है, उसे उसी रूप में अपनाने व स्वीकारने में ही बुद्धिमत्ता है। दूसरे लोगों, बाहरी बातों व परिस्थितियों को समझने व स्वीकारने से पहले स्वयं आप जैसे हैं, उसी स्वरूप में देख पाना व स्वयं को स्वीकार कर लेना ही सुखमय जीवन का आधार है। क्योंकि, जब हम खुद को स्वीकार कर नहीं पाते, तो स्वयं से असहमत होते हैं, स्वयं से घृणा करने लगते हैं। इससे हमारा आभामंडल नकारात्मक हो जाता है। सच यह है कि हम बार-बार जिस सोच को दोहराएंगे, वही हमारे आत्मा पर अंकित होकर आदत बन जाएगी।
आत्मनिंदा से हमारी अपनी ऊर्जा कम होती है
दूसरों के प्रति अपने विचार व शब्दों के साथ हम सावधानी बरत सकते हैं, पर हम स्वयं से जो कहते हैं, वह हम पर कहीं गहरी छाप छोड़ता है। स्वयं को कमतर मानना, आत्मनिंदा से हमारी अपनी ऊर्जा कम होती है, वहीं जब हम स्वयं को अपनी कल्पना में अधिक मानने लगते हैं, तब भी समस्याएं खड़ी होती है। अत: सर्वप्रथम हम स्वयं जैसे हैं, उसे जानकर स्वीकार करें, तो हम सफल जीवन जी सकते हैं। स्वयं को कमतर मानने से जब कोई आपसे मिलता है, तब आप सावधान होकर उससे बात करते हैं।
आप शब्दों से उस का स्वागत भी करते तो है, परंतु आपके भावों से आत्म-आलोचना झलकती है। आपके भीतर से हीनभावना प्रदर्शित हो ही जाती है। किसी भी व्यक्ति का संस्कार इस आधार पर तय होता है कि वह बार-बार क्या दोहराता है।
आत्म-आलोचना करने की आदत
अगर कोई व्यक्ति अपने परिवार वालों की डांट-फटकार का कारण खुद को मानता है, स्वयं को दोषी स्वीकार करता है और आत्म ग्लानि में डूबा रहता है, तो इसमें अधिकतर उसकी बचपन से आत्म-आलोचना करने की आदत ही सामने आती है। बचपन में हम सबकी विचार प्रक्रिया परिपक्व नहीं होती है। सत और असत के बीच अंतर कैसे करना है, बचपन में हमें पता नहीं होता है।
तब हम अपने लिए उन छवियों को ही स्वीकार कर लेते हैं, जो हमारे माता-पिता या बड़े लोगों ने तय की थीं। जब भी कोई माता-पिता अपने बच्चे के लिए कुछ कहते हैं, तो बच्चा उसको अपना परिचय मान लेता है। क्यों कि बच्चों के लिए उनके माता-पिता हमेशा सही होते हैं।
नकारात्मक संदेश से रहें दूर
अगर किसी बेटी को माता-पिता से अपने बारे में कोई नकारात्मक संदेश मिलता है, तो वह इसे मान कर यकीन करती है कि वह सच होगा और उसी नकारात्मक संदेश पर अपनी आत्म-छवि बना लेती है। भले ही आगे चलकर उसे उसकी सकारात्मक छवि दिए जाएं, तब भी उस पर अधिक प्रभाव नहीं होगा। उसने बचपन से ही वे अपनी कमियों को अपना मान लिया है।
हालांकि, यह सच है कि कोई भी इंसान पीड़ित अवस्था में ही सारा जीवन नहीं बिता सकता। और यह भी सच है कि हम अतीत की मनोस्थिति को बहुत ज़्यादा बदल नहीं सकते।
हमें यह समझना होगा
अब हम स्वयं को बदलने की रास्ते पर हैं। जीने की एक तरीका यह हो सकता है कि हम स्वयं को बीते हुए समय की अवस्था में ही रहने दें, हम आत्म-आलोचक बने रहें। देखने में आता है, बहुत से बच्चे अपनी कमियों के लिए माता-पिता को दोषी ठहराते हैं। लेकिन, दूसरों को दोष देने से हमारी अपनी ऊर्जा कम होती है। हमें यह समझना होगा कि अतीत हमारे हाथों में नहीं है, पर उसके समाधान के बारे में विचार करने का वक्त हमारे पास अभी है। यह अब और ही महत्वपूर्ण है कि हम जो कर सकते हैं उसे करें, और अपने भीतर सुधार लाएं। अगर हम इस तरह दूसरों को दोष देते रहेंगे, तो हमारी ऊर्जा समाप्त होती जाएगी। पहले दूसरे हमारी हानि की दोषी थे, अब हम स्वयं अपनी हालात बिगाड़ने की दोषी होंगे। यह भी पढ़ें: Navadha Bhakti: लाभ और संतोष का ठीक समय पर उपयोग करना ही भक्ति हैदूसरों की सोच को बदलना संभव नहीं
दूसरों को कहने से पहले, हमे स्वयं को इस बात से प्रोत्साहित करना चाहिए कि सब कुछ भलाई के लिए होता है और हर बात में कल्याण है। जब तक हम अपने साथ अच्छी बात नहीं करते हैं, हमारे लिए दूसरों की सोच को बदलना संभव नहीं होगा। अगर हम अपने पर काम किए बिना दूसरों के सोच बदलने लगते हैं, तो उन पर कोई असर नहीं होगा। अगर हम विचार के स्तर पर, भीतर ही भीतर बहुत आलोचक हो गए हैं, तो हमें इस संस्कार को बदलना होगा। इसके लिए हमें कुछ मंत्रों का पालन करना होगा। पहले हमे दोष देने का खेल बंद करना होगा। हमे याद रखना है कि, हमारी प्रतिक्रिया ही हमारी रचना है। दूसरा मंत्र है, हमे अपनी निंदा करना बंद करना होगा। अगर हमने कुछ ऐसा किया भी है जो सही नहीं है, तो बेहतर होगा कि हम उसे स्वीकार कर लें और अपनी निंदा करने के बजाय इसे भविष्य में अलग तरीके से करें। दृढ़ संकल्प से रोज कुछ सकारात्मक चिंतन करें।आज ही करें ये शुभ संकल्प
- आज से ही अपनी व दूसरों की आलोचना बंद करें और इस प्रकार शुभ संकल्प करें।
- मुझे स्वयं को देखना है, मूल रूप में मैं एक सुंदर आत्मा हूं।
- अतीत के अनुभवों पर मैंने जो अपनी छवि बनाई थी, उसे अभी तक अपना सच मान रहा था, आज से मैं बदल रहा हूं। अब मुझे स्वयं को अनासक्त रूप में देखना होगा।
- मैं प्रशंसा व प्रोत्साहन के रंगों का प्रयोग कर अपनी छवि बनाऊंगा। जो भी विचार पैदा करूंगा, वे स्वीकार व प्रशंसा से भरे होंगे।
- मेरे भीतर बहुत से गुण हैं। मैं स्वयं के लिए सहजता का मार्ग चुनता हूं।
- मैं अपने आप से ध्यानपूर्वक बात करता हूं। केवल शुद्ध, सकारात्मक व शाक्तिशाली शब्दों को चुनता हूं।
- मैं आत्मा के रूप में स्वयं को सशक्त बनाता जा रहा हूं।
- मैं स्वयं से प्रेम करता हूं और सबके प्रति आत्मिक स्नेह-प्रेम व कल्याण की भावना रखता हूं।