चिंतन धरोहर: समय, संकल्प, संपत्ति को परमार्थ में न लगाना ही असफलता है
Brahma Kumari Shivani संतुष्ट आत्मा बनने का अर्थ है सदा सत्य और सदाचार के मार्ग पर चलना। संतोष द्वारा सर्व दिव्य गुणों का आह्वान होता है जिससे सर्व अवगुणों की आहुति स्वत हो जाती है। जीवन में अप्राप्ति या असंतुष्टि का कारण अंदर की कमियां या कमजोरियां ही हैं जो परमात्म ज्ञान और योग साधना की प्राप्तियों से दूर हो जाती हैं।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 26 Nov 2023 12:30 PM (IST)
ब्रह्मा कुमारी शिवानी (आध्यात्मिक प्रेरक वक्ता)। संतोष सभी गुणों में सर्वोपरि है। जीवन में संतुष्टि है, तो सद्गुणों को अपनाना सहज है। जहां सद्गुणों का वास है, वहां दुर्गुणों का नाश हो ही जाता है। क्योंकि, असंतुष्टि अशांति व अवगुणों की जननी है। असंतुष्टि का कारण अप्राप्ति है, किसी न किसी इच्छा या अपेक्षा की अपूर्ति है। ईश्वरीय ज्ञान, गुण व शक्तियों की प्राप्ति, धारणा व उपार्जन से इंसान की सभी सदिच्छाओं व आवश्यकताओं की सहज पूर्ति हो जाती है।
संतुष्ट आत्मा बनने का अर्थ है सदा सत्य और सदाचार के मार्ग पर चलना। संतोष द्वारा सर्व दिव्य गुणों का आह्वान होता है, जिससे सर्व अवगुणों की आहुति स्वत: हो जाती है। जीवन में अप्राप्ति या असंतुष्टि का कारण अंदर की कमियां या कमजोरियां ही हैं, जो परमात्म ज्ञान और योग साधना की प्राप्तियों से दूर हो जाती हैं। जिन्हें सर्व प्राप्तियां हैं, उसके चिह्न उनके मुख और व्यक्तित्व में प्रसन्नता के रूप में दिखाई देते हैं।
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आजकल लोगों के चेहरे पर सदा प्रसन्नता की झलक देखने को नहीं मिलती है। इंसान कभी प्रसन्नचित्त है तो और कभी प्रश्नचित्त बन जाता है। किसी भी परिस्थिति में हम क्यों, क्या, कैसे, कब... जैसे प्रश्नों से प्रश्नचित्त बन जाते हैं। पर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सदा प्रसन्नचित्त होते हैं। उनकी किसी भी बात में प्रश्न नहीं होता है। जो प्राप्तियों से सम्पन्न होता है, उसमें हलचल नहीं होती है। जो खाली होता है, उसमें हलचल होती है। स्वयं से पूछिए कि क्या मैं सदा प्रसन्नचित्त रहता या रहती हूं? यदि प्रसन्नता कम होती है तो उसका कारण प्राप्ति की इच्छा है।
इच्छा की नींव अप्राप्ति है। बहुत सूक्ष्म इच्छाएं भी अप्राप्ति की तरफ खींच लेती हैं। ऊपर से आप यही कहते हैं कि मेरी इच्छा नहीं है, पर हो जाए तो अच्छा है। जहां अल्पकाल की इच्छा है, वहां अच्छा नहीं हो सकता। अत: इस बात पर ध्यान दीजिए कि कहीं आपके भीतर इच्छाएं सूक्ष्म रूप में तो नहीं हैं। सूक्ष्म इच्छाएं भी इंसान को संपन्न व संपूर्ण नहीं बनने देती हैं।
संपूर्णता पाने के लिए हमारे पास यदि लग्न और प्रेम है, तो इनके लिए त्याग करना या परिवर्तन करना कठिन नहीं है। पूरा त्याग या परिवर्तन चहिए। आधा-अधूरा नहीं। पूरी प्रसन्नता के लिए पूरा परिवर्तन चहिए। कई लोग प्रशंसा पर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, लेकिन यह प्रसन्नता अल्पकाल की है। ऐसे में यह भी ध्यान रखिए कि मेरी प्रसन्नता प्रशंसा के आधार पर तो नहीं है?
नाम, मान और शान वाली इच्छा भी प्रसन्नता को समाप्त कर देती है। बहाना सेवा का होगा, पर इच्छा नाम, मान व शान की प्राप्ति की होगी। जो नाम के लिए सेवा करते हैं, उनका नाम अल्पकाल के लिए तो हो जाता है, पर सदा के लिए नहीं हो पाता। क्योंकि कच्चा फल खा लिया। अभी-अभी सेवा की, अभी-अभी नाम कमाया। कच्चे फल में ताकत व स्वाद नहीं होता। सेवा के बदले में मान की इच्छा वास्तव में मान नहीं, बल्कि अभिमान है। जहां अभिमान है, वहां प्रसन्नता रह नहीं सकती।
सबसे बड़ा मान है, निस्वार्थ सेवा द्वारा ईश्वर के दिल में स्थान प्राप्त करना। मान और शान चाहिए तो सदा ईश्वर के हृदय में सच्चा स्थान प्राप्त करें। इससे हमारा व्यक्तित्व सदा आनंद व प्रसन्नता वाला बन जाता है। हमारा जीवन उत्तम, संपन्न व सफल बन जाता है। कहते हैं, सफलता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। यह मात्र कहना नहीं, मानना भी चाहिए। इसे हमें साकार करना चाहिए। अपने कमजोर संकल्प के कारण हम इसे साकार नहीं कर पाते हैं।
यह भी पढ़ें: मन की कड़वाहट को मिटाने से संबंधों में समरसता आ जाएगीअपना ही कमजोर संकल्प प्रसन्नचित्त के बदले प्रन्नचित्त बनाता है। होगा या नहीं होगा? क्या होगा? पता नहीं... यह संकल्प दीवार बन जाती है और सफलता उस दीवार के अंदर छिप जाती है। कहावत है, निश्चय बुद्धि विजयन्ति, संशय बुद्धि विनश्यंति-अर्थात निश्चय बुद्धि से विजय या सफलता मिलती है और संशय बुद्धि से पराजय या असफलता। जब हम स्वयं ही कमजोर संकल्प का जाल बिछा लेते हैं, तो उसमें फंस जाते हैं।
हम विजयी हैं ही-इस दृढ़ संकल्प से कमजोर सोच के जाल को समाप्त करें। समाप्त करने की शक्ति हमारे दृढ़ संकल्प में समाई हुई है। यह निश्चय तुरंत करें। विजय या सफलता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। कोई इसको छीन नहीं सकता-ऐसी निश्चयबुद्धि वाला व्यक्ति ही सहज, स्वत: और सदा प्रसन्नचित्त रहेगा। असफलता का दूसरा कारण है अपना समय, संकल्प, संपत्ति को परमार्थ में न लगाना। परमार्थ से ही सफलता सिद्ध होती है। अगर बीज अच्छा है तो फल ना मिले, यह नहीं हो सकता। बीज में कुछ कमी है, तभी सफलता का फल नहीं मिलता। जहां प्रसन्नता है, वहां सफलता है।
प्रसन्नचित्त रहने से बहुत अच्छा अनुभव होगा। वैसे भी किसी को प्रसन्नचित्त देखो तो कितना अच्छा लगता है! उसके संग रहना, उसके साथ बात करना, बैठना कितना अच्छा लगता है! प्रसन्नचित्त को देखकर अच्छा प्रतीत नहीं होता। इसलिए हमेशा प्रसन्नचित्त रहना है, प्रश्नचित्त नहीं। सभी व्यर्थ प्रश्नों को स्वाहा करो। आपका भी समय बचेगा और दूसरों का भी। एक मिनट के लिए व्यर्थ प्रश्नों को ईश्वर को समर्पित कर दो। उन्हें स्वाहा करो।