Move to Jagran APP

Samudra Manthan: कैसे हुई कल्पवृक्ष की उत्पत्ति? समुद्र मंथन से जुड़ा है कनेक्शन

भगवद्भजन के प्रताप से समस्त कामनाओं का अंत हो जाता है तब साधक को भगवत-रूपमाधुरी सुधा का अमर-अमृत पान प्राप्त हो जाता है। लौकिक-पारलौकिक सुखों के भोगों को भोगना और उनकी परिकल्पना करते रहना यह एक ऐसी मृगतृष्णा है जो मनुष्य के बहुमूल्य जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। महाराज भर्तृहरि जी ने उपदेशित करते हुए हमें सावधान किया है-भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता।

By Jagran News Edited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 07 Oct 2024 01:25 PM (IST)
Hero Image
Samudra Manthan: समुद्र मंथन का धार्मिक महत्व
आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। समुद्र मंथन के छठवें रत्न क्रम में मनोभिलाषित इच्छाओं की संपूर्ति करने वाला कल्पवृक्ष निकला, जो याचकों को मनोभिलाषित वस्तु प्रदान करने वाला था, जिसे देवताओं ने स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित कर दिया। कल्पवृक्ष इहलोक और स्वर्गलोक के वैभव की इच्छाओं की संपूर्ति कराने वाले का प्रतीक है-'सुरुद्रः स्वर्गसंपदम्'।

यह भी पढ़ें: कैसे हुई ऐरावत हाथी की उत्पत्ति? स्वर्ग नरेश इंद्र से जुड़ा है कनेक्शन

यहां इसके माध्यम से यह संकेत है कि जिस साधक को भगवद्भक्ति रूपी अमृत का पान करना है, उसे मन से अपनी समस्त भोगेच्छाओं का परित्याग कर देना चाहिए, क्योंकि भोगेच्छा के रहते हुए, भगवद्भक्तिसुधा की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है। आज मनुष्य की इच्छाएं इतनी बढ़ गई हैं, जिनकी संपूर्ति के लिए वह उचित-अनुचित को पीठ देकर, भोगों को भोगने के लिए मानव से दानव बन गया है।

इच्छाओं का अंत नहीं है। वह इच्छाओं के दलदल में धंसता जा रहा है, जिसके दुष्परिणाम से अपने बहुमूल्य मानव जीवन को स्वयं ही नष्ट करने वाला सिद्ध हो रहा है। महाराज भर्तृहरि जी ने उपदेशित करते हुए हमें सावधान किया है-'भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता' हमने भोगों को भोगा नहीं भोगा, अपितु भोगों ने हमें ही भोग लिया। आसुरी वृत्ति ही भोग है और दैवी वृत्ति ही योग है।

यह भी पढ़ें: शब्द की शक्ति सीमा में रहते हुए भी असीमित है

भगवद्भजन के प्रताप से समस्त कामनाओं का अंत हो जाता है, तब साधक को भगवत-रूपमाधुरी सुधा का अमर-अमृत पान प्राप्त हो जाता है। लौकिक-पारलौकिक सुखों के भोगों को भोगना और उनकी परिकल्पना करते रहना, यह एक ऐसी मृगतृष्णा है, जो मनुष्य के बहुमूल्य जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। भगवद्भक्ति रूपी अमृत का पान वही कर सकता है, जो समस्त इच्छाओं से रहित हो जाता है। पूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-

सकल कामना हीन जे, राम भगति रस लीन।

नाम सुप्रेम पियूष हृद, तिन्हहुं किए मन मीन॥

जो साधक समस्त कामनाओं से रहित हैं और जो भगवान श्रीराम के भक्तिरस में आकंठ डूबे हुए हैं, जिन सत्पुरुष भगवद्भक्तों ने "राम" नाम के सुंदर प्रेमरूपी अमृत-सरोवर में अपने मन को मीन बना रखा है अर्थात नामामृत के आनंद को एक पल भी नहीं त्याग सकते हैं, वही भगवत्प्रेमसुधा का अमर रसास्वादन कर सकेंगे। यह तभी संभव होगा, जब नश्वर भोगों की इच्छा से सहज वैराग्य हो जाये।