Shri Vallabhacharyaji: इस सेवा भाव के चलते भगवान श्रीकृष्ण ने वल्लभाचार्य जी को दिए थे अपने दर्शन
वेदांत के संप्रदायों में महाप्रभु वल्लभ संप्रदाय अपनी एक अलग विशेषता रखता है। वल्लभाचार्य जी ने विशेष सिद्धांतों की नींव पर वैष्णव संप्रदाय का भवन खड़ा किया। उन्होंने वेदांत सूत्रों को लेकर अणुभाष्य किया और श्रीमद्भगवद्गीता को लेकर सुबोधिनी तथा अनेक ग्रंथों व सूत्रों की रचना कर शुद्धाद्वैत के सिद्धांतों की व्याख्या की। भक्ति संप्रदाय में इसे पुष्टिमार्ग के नाम से जानते हैं।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 28 Apr 2024 04:31 PM (IST)
डा. चिन्मय पण्ड्या (देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति): महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के कुल में सौ सोमयज्ञ के उपरांत वल्लभाचार्य जी का अवतरण हुआ। उनका जन्म दक्षिण के उत्तरादि (वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर में) तैलंग ब्राह्मण परिवार में पिता लक्ष्मण भट्ट और माता श्रीइलम्मा के घर द्वितीय पुत्र के रूप में विक्रम संवत 1535 में हुआ। भागवत प्रेमियों और सुसंस्कारित परिवार के बीच इनका बचपन बीता। काशी के प्रकांड विद्वान माधवेंद्र पुरी से वेदशास्त्र आदि का अध्ययन मात्र 11 वर्ष की आयु में पूरा कर लिया।
यह भी पढ़ें: जिंदगी अपनी विभिन्नताओं के कारण ही दिलचस्प लगती हैवेदांत के संप्रदायों में महाप्रभु वल्लभ संप्रदाय अपनी एक अलग विशेषता रखता है। वल्लभाचार्य जी ने विशेष सिद्धांतों की नींव पर वैष्णव संप्रदाय का भवन खड़ा किया। उन्होंने वेदांत सूत्रों को लेकर अणुभाष्य किया और श्रीमद्भगवद्गीता को लेकर सुबोधिनी तथा अनेक ग्रंथों व सूत्रों की रचना कर शुद्धाद्वैत के सिद्धांतों की व्याख्या की। भक्ति संप्रदाय में इसे पुष्टिमार्ग के नाम से जानते हैं। उन्होंने अपने शिष्यों को बताया कि प्रभु की भक्ति तब पूरी होती है, जब साधक का तन, मन, धन और हृदय उनमें समर्पित हो अर्थात पूर्ण समर्पण के साथ प्रभु की भक्ति करने से ही ईश्वरीय कृपा की प्राप्ति होती है।
उन्होंने वृंदावन में रहकर भगवान श्रीकृष्ण के बालस्वरूप की प्रेममयी आराधना की। इनकी अष्टयाम सेवा बड़ी ही सुंदर है। इसमें माधुर्यभाव का विवरण है। कहा जाता है कि उनकी श्रद्धा भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि जो भी भक्त मेरी भक्ति, मेरे अनुशासनों का पालन अंतर्मन से करेगा, उसके साथ मैं सदैव रहूंगा। गृहस्थाश्रम में रहते हुए वल्लभाचार्य जी ने भगवान श्रीकृष्ण के बालस्वरूप की वात्सल्य भाव से उपासना की। वल्लभाचार्य जी की भक्ति और व्यक्तित्व का लोगों पर इतना विलक्षण प्रभाव पड़ा कि अनेकानेक लोग श्रीकृष्ण के बालस्वरूप के प्रेमी बन गए।
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उन्होंने भक्तिकाल के कवि सूरदास जी को प्रभु की लीलाओं से परिचित कराया और उन्हें लीला गान के लिए प्रेरित किया, जिसके कारण आज हम लीलाधर श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से परिचित हैं। उन्होंने अनेक भाष्य, ग्रंथ, नामावलियां, स्तोत्र आदि की रचना की। उनकी प्रमुख 16 रचनाओं को षोडश ग्रंथ के नाम से जाना जाता है। इनके नाम हैं-यमुनाष्टक, बालबोध, सिद्धांत मुक्तावली, पुष्टि प्रवाह मर्यादा भेद, सिद्धांत रहस्य, नवरत्न स्तोत्र, अंतःकरण प्रबोध, विवेक धैर्याश्रय, श्री कृष्णाश्रय, चतुःश्लोकी, भक्तिवर्धिनी, जलभेद, पञ्चपद्यानि, संन्यास निर्णय, निरोध लक्षण, सेवाफल आदि। जब भी भक्ति या अध्यात्म की बात होती है तो याद आती है भारत में भक्ति की अविरल धाराओं की, जो शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, आचार्य निंबार्क और वल्लभाचार्य से लेकर अब तक नए-पुराने रूपों में बहती चली आ रही हैं।