अयोध्या से अंगद की विदाई-भक्ति का परमश्रेय
भगवान ने विशेष प्रकार का ज्ञान देकर अपने प्रिय साथियों की विदाई कर दी। वहां से सब चल दिए पर बालिपुत्र अंगद नहीं उठे। अपने प्रति अंगद की उत्कृष्ट प्रीति देखकर भगवान भी संकोचवश कुछ नहीं बोले। कुछ देर बाद कांपते हुए शिथिल शरीर से खड़े होकर अंगद रोते हुए बोले मेरे प्रभु! हमारे पिता बालि ने मृत्यु के समय मुझे आपकी गोद में डाल दिया था।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 11 Sep 2023 04:35 PM (IST)
स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक-श्री रामकिंकर विचार मिशन)। जो सकल विरुद्धधर्माश्रयता के निर्वहन के साथ-साथ, लोकाराधन में तत्पर हैं, वे तो केवल राम हैं। अयोध्या में भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक हो जाने के पश्चात छह महीने बीत गए। दिन और वार की किसी को सुधि नहीं रही। अचानक एक दिन भगवान ने सभा बुलाई और बंदरों को यह कहकर विदा कर दिया कि आप लोगों ने मेरी बहुत सेवा की, अब जाइए और घर जाकर मेरा भजन कीजिए :
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।।
भगवान ने विशेष प्रकार का ज्ञान देकर अपने प्रिय साथियों की विदाई कर दी। वहां से सब चल दिए, पर बालिपुत्र अंगद नहीं उठे। अपने प्रति अंगद की उत्कृष्ट प्रीति देखकर भगवान भी संकोचवश कुछ नहीं बोले। कुछ देर बाद कांपते हुए शिथिल शरीर से खड़े होकर अंगद रोते हुए बोले, मेरे प्रभु! हमारे पिता बालि ने मृत्यु के समय मुझे आपकी गोद में डाल दिया था और आपके हाथ में मेरा हाथ दे दिया था।
प्रभु! जिसको कहीं शरण नहीं मिलती है, उसके आश्रय आप हैं। मुझे दीन जानकर अपनी शरण में रख लीजिए, मेरे जीवन और जन्म का फल आपकी सेवा है। भगवान उनकी भावमयी भाषा और मुख देखकर रोने लगे। अंगद को उन्होंने गले से लगा लिया, ताकि अंगद उनके हृदय को सुन और समझ लें। भगवान के हृदय को अंगद ने समझ लिया। अंगद अपनी तात्कालिक भावना पर संकुचित हो गए।
अंगद को अनुभव हुआ कि करुणामय राम कह रहे हैं, अंगद! मेरे प्रिय पुत्र, तुम केवल वर्तमान को ही देख पा रहे हो, पर मैं तो भविष्य का सोच रहा हूं। क्या तुम समझते हो मेरा मन तुम्हें घर लौटाने का है? ऐसा तो कदापि संभव ही नहीं है। मैं तो यह सोचकर संकुचित हो रहा हूं कि यदि आगे चलकर कहीं तुम्हें घर की याद आई और तुमने मुझसे अवकाश मांगा, तो यह न तो तुम्हारी गरिमा के अनुरूप होगा और ना ही मेरी मर्यादा रहेगी।
भगवान इतने कृपालु हैं कि अपने प्रिय भक्त को हृदय से लगाकर और अपने कंठ की माला अंगद को पहनाकर बताना चाह रहे हैं कि यदि तुम्हें अपने काका सुग्रीव से कदाचित भय हो तो हम तुम्हें माला पहनाकर उन्हें बिना बोले समझा देते हैं कि मेरी माला का क्या अर्थ है। भगवान कहते हैं कि सुग्रीव भी तुम्हारी ही तरह मेरे शरणागत हो चुके हैं। तुम्हें डरने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि मेरे गले की माला का रहस्य सुग्रीव अच्छी तरह से जानते हैं। जब वे तुम्हारे गले में मेरी माला देखेंगे तो उन्हें तुम्हारे प्रति पिता-पुत्र का सा प्रेम उदित होगा। अंगद भावुक हो गए और अकुलाकर भगवान के चरणों में गिर गए। करुणा से भरे श्रीराम ने अंगद को नीति, प्रीति, परमार्थ और स्वार्थ के परम तत्व शरणागति का परमोपदेश देकर विदा किया :
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।बिदा कीन्ह भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ।।श्रीराम ने श्रीभरत, श्रीलक्ष्मण और श्रीशत्रुघ्न को आदेश दिया कि अंगद को बाहर तक विदा करके आएं। जाते समय भावविभोर अंगद का मन भगवान में लगा था। बार-बार यही सोचते कि शायद भगवान मुझे बुला लें और अपनी चरण-सेवा में रहने के लिए कह दें। अंत में भगवान की कोमल वाणी का सहारा लेकर वह आगे चले। भरत जी ने अयोध्या से विदा हुए सारे वानरों के समूह तक अंगद को पहुंचा दिया। अब अंगद को अपना आखिरी सहारा हनुमान जी ही लगे, जो वानरराज सुग्रीव से अनुमति लेकर भगवान की सेवा के लिए दस दिन की आज्ञा मांगकर भगवान के पास लौट रहे थे।
अंगद ने कहा, हनुमान जी! प्रभु के चरणों में मेरा प्रणाम कह दीजिएगा। फिर बिलख-बिलख कर कहने लगे कि कृपया प्रभु को मेरी याद दिलाते रहिएगा। हनुमान जी ने प्रेम से अंगद को हृदय से लगाकर अपने हृदय में विराजमान श्रीसीताराम जी के दर्शन कराए। अंगद रोते-बिलखते किष्किंधा की ओर चल पड़े। हनुमान जी में यदि लेश मात्र भी व्यक्ति भाव होता तो वे अंगद से कहते कि कोई बात नहीं, मैं प्रभु से अनुरोध करता हूं, वे आपको सेवा में रख लेंगे। पर नहीं, भगवान का निर्णय ही सर्वश्रेष्ठ है, यही विश्वास भक्त का सर्वस्व होता है। वे अंगद को भगवान की कृपा और निर्णय पर विश्वास दिलाकर उन्हें आश्वस्त कर देते हैं। हनुमान जी ने जब अंगद जी का चरित्र भगवान को सुनाया तो वे अत्यंत भावुक हो गए और शिथिल होकर सिंहासन पर बैठकर अंगद के प्रेम की सुधि में मगन हो गए :
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयो हनुमंत।तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए भगवंत।।अंगद को रोमांच हो रहा था। मार्ग में भविष्य की ओर जाते हुए भी अंगद ने अपने भूतकाल के द्वारा अपना वर्तमान समाधिमय कर लिया, वही उनका भविष्य बन गया। अंगद मार्ग में जाते हुए भगवान का ध्यान कर रहे हैं कि भगवान मुझे कैसे देखते थे, कैसे मुझसे बोलते थे। लंका में जब मेरे मुष्टिका प्रहार से रावण के दस सिरों से सारे मुकुट गिर गए थे तो उनमें से जब मैंने रावण के चार मुकुट आकाश मार्ग से प्रभु के पास भेज दिए थे और तब, जब मैं लौटकर प्रभु के पास आया तो प्रभु ने मुझसे कैसे विनोद किया।
यह सोच कर अंगद नाम, रूप, लीला और धाम भगवान के चारों श्रीविग्रहों का सेवन कर रहे थे। भगवान ने अंगद को इसलिए भेज दिया कि वह दूर रहकर उनके सर्वांग स्वरूप की सेवा में ही रहेंगे। सत्य, तप, दया और दान तथा साम, दाम, दंड, भेद का संपूर्ण ज्ञान कराकर भगवान अंगद को सर्वांग सुंदर बनाना चाहते थे, क्योंकि धर्म और राजनीति जब तक दोनों को ठीक न समझ लिया जाए, तब तक साधक के जीवन में भक्ति और ज्ञान का संपूर्ण परिपाक नहीं होता है और साधक जीवन को व्यावहारिक तथा पारमार्थिक नहीं बना पाता है।
भगवान की व्यापकता और करुणा की पराकाष्ठा यह है कि अंगद के पिता बालि को अहमता और ममता से मुक्त करके उनको भक्ति और अपना परम पद देने के लिए बालि वध का कलंक ले लेते हैं। साथ ही उसी बालि के पुत्र अंगद की भक्ति छवि को त्रैलोक्य में फहराने के लिए कुलिश (वज्र) के समान कठोर बनकर अपनी कोमलता के विरद को त्यागकर भी वे भक्त को परमश्रेय की प्राप्ति कराते हैं :कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि।।