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क्या आप जानते हैं? कुंती व द्रोपदी ने भी की थी छठ पूजा

सूर्य उपासना का महापर्व छठ सनातन काल से मनाया जाता रहा है। महाभारत काल में कुंती व द्रोपदी ने भी छठ पूजा कर अपनी मनोकामना पूरी की थी। लोक आस्था का यह महापर्व पूर्वाचल भारत से निकल कर अब वैश्रि्वक शक्ल अख्तियार कर चुका है। देश के उत्तरी और पश्चिमी राज्यों से होते हुए अमेरिका तक में इसे मनाया जाने लगा है। छठ पूजा का आयोज

By Edited By: Updated: Tue, 05 Nov 2013 01:44 PM (IST)

चंडीगढ़। सूर्य उपासना का महापर्व छठ सनातन काल से मनाया जाता रहा है। महाभारत काल में कुंती व द्रोपदी ने भी छठ पूजा कर अपनी मनोकामना पूरी की थी। लोक आस्था का यह महापर्व पूर्वाचल भारत से निकल कर अब वैश्रि्वक शक्ल अख्तियार कर चुका है। देश के उत्तरी और पश्चिमी राज्यों से होते हुए अमेरिका तक में इसे मनाया जाने लगा है।

छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के कोने-कोने में देखा जा सकता है। अब तो विदेशों में रहने वाले लोग भी इस पर्व को बहुत धूमधाम से मनाते हैं। सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है।

छठ का महोत्सव वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र माह में और दूसरी बार कार्तिक माह में। चैत्र शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले त्यौहार को कार्तिकी छठ के नाम से जाना जाता है।

सनातन काल से मनाया जाता रहा है छठ पर्व

संस्कृत के प्रोफेसर यूएन पाण्डेय बताते हैं कि छठ पूजा का महत्व सनातन काल से ही देखा जा सकता है। प्राचीन धार्मिक संदर्भ में यदि इस पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि छठ पूजा का आरंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना तथा सूर्य के आशीर्वाद स्वरूप उन्हें पुत्र कर्ण की प्राप्ति होने के समय से ही माना जाता है। इसी प्रकार द्रोपदी ने भी छठ पूजा की थी, जिस कारण पांडवों के सभी कष्ट दूर हो गए और उन्हें उनका राज्य दोबारा प्राप्त हुआ।

ऐसे की जाती है छठ पूजा

छठ पूजा का आरंभ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होता है। कार्तिक शुक्ल सप्तमी को इसका समापन होता है। प्रथम दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी नहाय-खाय के रूप में मनाया जाता है नहाय-खाय के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को खरना किया जाता है। पंचमी को दिनभर खरना का व्रत रखने वाले व्रती शाम के समय गुड़ से बनी खीर-रोटी और फल का सेवन प्रसाद रूप में करते हैं। इसके उपरांत व्रती 36 घंटे का निर्जला व्रत करते हैं। व्रत समाप्त होने के बाद ही व्रती अन्न और जल ग्रहण करते हैं। खरना पूजन से ही घर में देवी षष्ठी का आगमन हो जाता है। इस प्रकार भगवान सूर्य के इस पावन पर्व में शक्ति व ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है। षष्ठी के दिन घर के समीप ही किसी नदी या जलाशय के किनारे पर एकत्रित होकर पर अस्ताचलगामी और दूसरे दिन उदीयमान सूर्य को अ‌र्घ्य समर्पित कर पर्व की समाप्ति होती है।

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