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जानें, धर्मराज युधिष्ठिर के बारें में अदभुत बातें

युधिष्ठिर धैर्य, क्षमा, सत्यवादिता आदि दिव्य गुणों के केन्द्र थे| ये धर्म के गूढ़ तत्त्वों के व्यावहारिक व्याख्याता तथा भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे|

By Preeti jhaEdited By: Updated: Fri, 16 Dec 2016 09:50 AM (IST)

महाराज युधिष्ठिर धैर्य, क्षमा, सत्यवादिता आदि दिव्य गुणों के केन्द्र थे| धर्म के अंश से उत्पन्न होने के कारण ये धर्म के गूढ़ तत्त्वों के व्यावहारिक व्याख्याता तथा भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे|

बचपन में ही इनके पिता महात्मा पाण्डु स्वर्गवासी हो गये, तभी से ये धृतराष्ट्र को अपने पिता के समान मानकर उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे| अपने सदाचार और विचारशीलता के कारण युधिष्ठिर बचपन में ही लोकप्रिय हो गये और प्रजा इन्हें अपने भावी राजा के रूप में देखने लगी| दुर्योधन इनकी लोकप्रियता से जलता था और पाण्डवों का पैतृक अधिकार छीनकर स्वयं राजा बनना चाहता था| इसलिये उसने पाण्डवों को जलाकर मार डालने के उद्देश्यसे वारणावत में लाक्षागृह का निर्माण कराया| उसने अपने प्रज्ञाहीन पिता को बहलाकर कुन्ती सहित पाण्डवों को वारणावत भेजने का आदेश भी पारित करा लिया| अपने ताऊकी आज्ञा समझकर युधिष्ठिर अपनी माता और अपने भाइयोंके साथ वारणावत चले गये| किसी तरह विदुर की सहायता से पाण्डवों के प्राण बचे| इधर दुर्योधनने हस्तिनापुर के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया|

द्रौपदी-स्वयंवर में पाण्डवों की उपस्थिति का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र ने विदुर को भेजकर उन्हें बुलवा लिया| उन्होंने युधिष्ठिर को आधा राज्य देकर खाण्डवप्रस्थ में रहने का आदेश दिया| युधिष्ठिर ने उनके आदेश को सहर्ष स्वीकार कर लिया और खाण्डवप्रस्थ का नाम बदलकर इन्द्रप्रस्थ रखा तथा उसे अपनी राजधानी बनाकर विशाल राजसूय यज्ञ का आयोजन किया| राजसूय यज्ञ में बड़े-बड़े राजाओंने आकर युधिष्ठिर को बहुमूल्य उपहार दिये और उन्हें अपना सम्राट् स्वीकार किया|

दुर्योधन पाण्डवों के इस उत्कर्ष को देखकर ईर्ष्या से जल उठा और उसने कपट-द्यूत में छलपूर्वक पाण्डवों का सर्वस्व हरण कर लिया| कुलवधु द्रौपदीको नग्न करने का गर्हित कर्म किया गया| अर्जुन और भीम-जैसे योद्धा कुरुकुल का संहार करने के लिये तैयार बैठे थे; फिर भी धर्मराज ने धर्म के नाम पर सब कुछ सुन लिया और सह लिया| जिस दुर्योधन ने पाण्डवों का सर्वस्व अपहरण कर के उन्हें दर-दरका भिखारी बना दिया, वही जब अपने भाइयों और कुरुकुल की वधुओं के साथ चित्रसेन गन्धर्व के द्वारा बन्दी बना लिया गया, तब अजातशत्रु युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को आक्रमण का आदेश देते हुए कहा - 'आपस में विवाद होने पर कौरव सौ और हम पाँच भाई हैं, परंतु दूसरों का सामना करने के लिये तो हमें मिलकर एक सौ पाँच होना चाहिये| पुरुषसिंहो उठो और जाओ! कुल के उद्धारके लिये दुर्योधन को बलपूर्वक छुड़ाकर ले आओ|' अपने शत्रु के साथ भी इस प्रकार का सद्व्यवहार महाराज युधिष्ठि रकी अजातशत्रुता, धर्मप्रियता और नीतिज्ञता की सीमा है|

महाराज युधिष्ठिर निष्काम धर्मात्मा थे| एक बार इन्होंने अपने भाइयों और द्रौपदी से कहा - 'मैं धर्म का पालन इसलिये नहीं करता कि मुझे उसका फल मिले| फल के लिये धर्माचरण करनेवाले व्यापारी हैं, धार्मिक नहीं|' वन में यक्षरूपी धर्म से इन्होंने अपने छोटे भाई नकुल को जिलाने की प्रार्थना की| यक्ष के यह पूछने पर कि 'तुम अर्जुन और भीम-जैसे यौद्धाओंको छोड़कर नकुल को क्यों जिलाना चाहते हो?' युधिष्ठिरने कहा - 'मुझे राज्य की चिन्ता नहीं है| मैं चाहता हूँ कि मेरी कुन्ती और माद्री दोनों माताओं का एक-एक पुत्र जीवित रहे|' युधिष्ठिर की इस समबुद्धि पर यक्ष ने उनके सभी भाइयों जीवित कर दिया| शरणागत कुत्ते के लिये इन्द्र के प्रस्तावको ठुकराते हुए धर्मराज ने कहा - 'जिस स्वर्ग के लिये आश्रित शरणागत धर्म का त्याग करना पड़े, मुझे उस स्वर्ग की कोई आवश्यकता नहीं है|' सच है, धर्म की वृद्धि के लिये महराज युधिष्ठिर के चरित्र का मनन करना चाहिये|