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जीवन दर्शन: करुणा के बिना अधूरा है जीवन, इसे अपनाकर बदलें अपना अंतर्मन

करुणा एक समुद्र की भांति है। परमात्मा करुणानिधान हैं और हमें करुणानिधान से ही करुणा मिलेगी। माया की प्रेरणा से काल कर्म स्वभाव और गुण से घिरा हुआ यानी इनके वश में हुआ जीव सदा भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर भी करुणा करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं तो आइए इससे जुड़ी कुछ प्रमुख बातों को जानते हैं।

By Jagran News Edited By: Vaishnavi Dwivedi Updated: Mon, 11 Nov 2024 04:13 PM (IST)
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जीवन दर्शन: करुणा के बिना अधूरा है जीवन।
मोरारी बापू (प्रसिद्ध कथावाचक)। भगवान परम कृपालु हैं। उन्होंने एक बार जिस पर करुणा कर दी, उस पर फिर कभी क्रोध नहीं किया। परमात्मा करुणानिधान हैं और हमें करुणानिधान से ही करुणा मिलेगी। माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ यानी इनके वश में हुआ जीव सदा भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर भी करुणा करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं। मानस में कहा गया है कि वह करुणा के सागर हैं- जेहिं बिधि प्रभु प्रसन्ना मन होई, करुना सागर कीजिअ सोई। परमपिता करुणा के सागर है और हम उनके अंश हैं तो स्वाभाविक रूप से करुणा हमें उनसे मिलेगी।

सत्य और प्रेम के साथ करुणा भी हमारे अंदर विद्यमान है। कह सकते हैं कि सुप्त अवस्था में वह है, लेकिन किसी सद्पुरुष के सान्निध्य से, कथा सत्संग से, भजन कीर्तन से, सद्ग्रंथों के पाठ से उसका प्राकट्य संभव है।

''फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥

कबहुंक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥''

सत्संग से, कथा से अनंत करुणा की वर्षा होती है। सत्संग से विवेक प्राप्त कर इस करुणा को महसूस किया जाए। करुणा में कोई भेद नहीं कर सकते। करुणा होती है तो बिना भेद के सबके लिए होती है। करुणा में कोई शर्त नहीं होती। करुणा सहज होती है। मुझे लगता है परमात्मा की करुणा से ही पूरा जगत प्रकट हुआ है।

''जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥''

प्रेम और करुणा

मैं अक्सर कहता हूं कि रामचरितमानस का सार सत्य, प्रेम और करुणा है। मैं कहता हूं सत्य हिमालय है, प्रेम गंगा है और करुणा सागर है। लोग पूछते हैं कि राम कहां हैं? तो मैं कहता हूं, राम परम सत्य में है। प्रेम में है। करुणा में है। व्यावहारिक दृष्टि से कहूं तो सत्य अपने लिए रखना, प्रेम दूसरे के लिए और करुणा सबके लिए रखना। यही जीवन का व्याकरण है, इसी को साधना कहते हैं।

''करुना सुखसागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।

सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥''

करुणा सागर है

करुणा सागर है और समुद्र रत्नाकर है। समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त किए गए। बाकी तो कितने ही रह गए। स्पर्द्धावृत्ति से मंथन हो रहा था, इसलिए 14 ही रत्न निकले। श्रद्धा से प्राप्त किया होता तो पूरे रत्नाकर को पा सकते थे। हम भी करुणासागर से कितने रत्न प्राप्त कर सकते हैं, इसकी कोई सीमा नहीं, लेकिन कम से कम 14 तो प्राप्त कर ही सकते हैं। करुणा से पहला रत्न मिलता है सुख। इस दुनिया में जिसको भी सुख मिला है, करुणा से मिला है। कठोरता से किसी को सुख नहीं मिला।

दूसरा रत्न है निष्कामता। कामना हमारे प्रयास से खत्म नहीं होगी। जब किसी की हम पर करुणा होती है तभी निष्काम भाव पैदा होता है। निष्काम का अर्थ ऊर्जाहीन होना नहीं है। सामर्थ होते हुए भी विवेक से बुराइयों से बचना निष्कामता है। तीसरा रत्न है अतिशय प्रियता।

करुणा अहंकार से मुक्त

जब तक खुद की करुणा खुद पर और परम तत्व की करुणा जीव पर नहीं होगी, जीव किसी का अति प्रिय नहीं हो पाता। जिन महापुरुषों ने करुणा का आश्रय लिया, वो समाज में अति प्रिय बने। ऐसे महापुरुष सबको ज्यादा अच्छे लगे। करुणा का चौथा रत्न है निरहंकारिता। करुणा अहंकार से मुक्त रखती है और व्यक्ति को सहज सरल रखती है। पांचवा रत्न है सुजनता यानी हर एक वस्तु को ठीक से जानने वाला। हम भले ही ज्ञानी ना बनें, लेकिन सुजान जरूर बने। और सरल अर्थ करना हो तो होशियार मत बनना, चतुर मत बनना। अध्यात्म का मार्ग सुजनों का है। चतुराई अध्यात्म मार्ग के पथिकों को गिरा देती है।

करुणा स्वर्ग का द्वार

करुणा से व्यक्ति में वचन कौशल्य आ जाता है। जब आदमी में करुणा होती है तो शब्दों में शालीनता आ जाती है। करुणा का सातवां रत्न है दोषों का समाप्त होना। आठवां रत्न है स्वभाव की कोमलता। जिसके जीवन का केंद्र बिंदु करुणा होगी, उसके स्वभाव में कोमलता बहुत होगी। नौवें रत्न के रूप में क्रोध से मुक्ति मिलती है। क्रोध नर्क का द्वार है जबकि करुणा स्वर्ग का द्वार। दसवें रत्न के रूप में करुणा सागर से सही अर्थ में धर्म की धुरी को अपने कंधे पर उठाने की क्षमता प्राप्त करना है।

सच्चे अर्थ में धर्म की धुरी वो ही उठा सकता है, जिसने करुणा का अनुभव किया हो। बिना करुणा के धर्म हिंसा करवाता है। आज के समय में जो अनुचित हो रहा है, उसके मूल में करुणा का अभाव है। वेद कहते हैं- सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामय:... सब सुखी हों सब निरोगी हों, सब शतायु हों। ये तभी संभव है, जब जीवन में करुणा होगी।

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ग्यारहवां रत्न है सुंदरता

करुणा सागर से निकलने वाला ग्यारहवां रत्न है सुंदरता। जिसको अपने जीवन को, तन मन को सुंदर रखना है, वह करुणा का आश्रय ले। कठोरता और आक्रामकता सुंदर नहीं रहने देती। करुणा का बारहवां रत्न है दूसरों की पीड़ा समझने का मन। दुनिया में बहुत लोग दुखी हैं लेकिन उनकी पीड़ा हम नहीं समझ पाते। कारण है करुणा का अभाव। करुणा जिसमें फूटेगी, वह दूसरे की पीड़ा को समझेगा।

तेरहवां रत्न है परम विवेक। विवेक सत्संग से मिलता है, लेकिन रामायणकार कहते हैं परम विवेक करुणा से मिलता है। करुणा का चौदहवां रत्न है निर्मल भक्ति। हम जैसों के लिए यह सर्वश्रेष्ठ रत्न है। निर्मल मन जन सो मोहि पावा। निर्मल मन, निर्मल भक्ति से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है।

करुणा के बिना आराम संभव नहीं

करुणा के बिना आराम संभव नहीं है। कठोर हृदय आराम नहीं प्राप्त कर सकता। क्रोधी आदमी आराम का अनुभव नहीं कर सकता। करुणा से अहिंसा, अहिंसा से शांति, शांति से आराम, आराम से विश्राम, विश्राम से राम, राम से सत्य, सत्य से प्रेम और प्रेम से करुणा की प्राप्ति होती है। यह एक सुव्यवस्थित क्रम है, एक गणित है।

प्रस्तुति: राज कौशिक

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