जीवन दर्शन: सृष्टि के चर-अचर सब प्राणियों का प्रेम व स्नेह के साथ मार्गदर्शन करती हैं मां जगदंबा
आत्म-साक्षात्कार हेतु तो तीनों गुणों की सीमा के पार जाना होगा-गुणातीत होना होगा! नवरात्र के बाद दसवां दिन विजयादशमी इसी सीमोल्लंघन का द्योतक है। कई जगह नवरात्रि के तुरंत बाद विजयादशमी के दिन छोटे बच्चों को अक्षर लिखने का आरंभ कराया जाता है। संस्कृत में अक्षर का अर्थ है जिसका कभी नाश नहीं होता। सापेक्षतः कहें तो विद्या का नाश नहीं होता।
माता अमृतानन्दमयी (प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु): इस जगत की प्रत्येक वस्तु, चर या अचर का मूल स्रोत एक निगूढ़ शक्ति है, जो तर्क और बुद्धि की सीमा के परे है! कोई पूछे कि यह शक्ति स्त्रीलिंग है या पुंल्लिंग, तो उत्तर के स्त्रीलिंग होने की संभावना अधिक है। जैसे एक नए जीवन को गढ़ने हेतु सहनशीलता, धैर्य, करुणा और क्षमता एक मां में ही होती है, वैसे ही विश्वमातृत्व की अनंत शक्ति ही इतने महत् एवं विशाल जगत को जन्म दे सकती है।
नवरात्र में, पहले तीन दिन दुर्गा देवी की उपासना की जाती है, फिर अगले तीन दिन लक्ष्मी देवी की और अंतिम के तीन दिन सरस्वती देवी की!देवी के ये तीन रूप क्रमशः तीन गुणों के प्रतीक हैं-तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण। यहां हम आश्चर्य में पड़ सकते हैं कि दुर्गा देवी तम की प्रतीक क्यों?
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भौतिक जगत में रहते हुए थोड़े-बहुत तमोगुण की भी आवश्यकता होती है। तमस पर्याप्त न हो तो हम ठीक से सो भी नहीं पाएंगे। आज कितने लोग अनिद्रा से ग्रस्त नींद की गोलियों के आदी हैं? क्यों उन्हें ठीक से नींद नहीं आती? क्योंकि उनके शरीर में तमस की कमी है। अत: वे अपने शरीर में कृत्रिम रूप से तमस का निर्माण करते हैं!
बीच के तीन दिन, देवी की पूजा लक्ष्मी रूप में होती है-रजोगुण के रूप में, जिसकी आवश्यकता किसी भी कार्य को करने में होती है। पैसा कमाना हो, चाहे कोई इच्छा पूरी करनी हो। शरीर में अत्यधिक या अति न्यून रजोगुण होना भी समस्याएं खड़ी करता है। अत्यधिक रजोगुण होगा तो ठीक से सोच भी नहीं सकते और शांति-विश्रांति भी दूर रहती है! फिर तनाव, चिंता और उच्च रक्तचाप हो जाता है।
यदि अति न्यून होगा तो हमारे कार्य समुचित नहीं होंगे। अत: रजोगुण को भी संतुलित रखना आवश्यक है। अंतिम के तीन दिन, सरस्वती देवी की उपासना होती है, जो सतोगुण अथवा सत्व गुण का प्रतीक है। सतोगुण पांडित्य, ज्ञान और शांति के रूप में प्रकट होता है। हमें सांसारिक सफलता,जीवन में सुख-सुविधाएं और खुशियां पानी हों तो इन तीन गुणों को संतुलन में रखना होगा।
किंतु आत्म-साक्षात्कार हेतु तो तीनों गुणों की सीमा के पार जाना होगा-गुणातीत होना होगा! नवरात्र के बाद दसवां दिन विजयादशमी इसी सीमोल्लंघन का द्योतक है। कई जगह, नवरात्रि के तुरंत बाद विजयादशमी के दिन छोटे बच्चों को अक्षर लिखने का आरंभ कराया जाता है। संस्कृत में 'अक्षर' का अर्थ है, जिसका कभी नाश नहीं होता। सापेक्षतः कहें तो विद्या का नाश नहीं होता।
शास्त्रों के वचनों का सही उच्चारण और अर्थ को समुचित रूप से समझना आवश्यक है। पर सर्वोपरि ईश्वर को जो चाहिए, वह है हमारा निष्कलंक मन। निष्कलंकता का भाव होता है कि, 'मैं जो कर रहा हूं, ईश्वर की दी शक्ति से ही कर पा रहा हूं।' निष्कलंकता समर्पण हेतु भी आवश्यक तत्व है। अक्षर देवी का ही प्रकट-रूप हैं! गुरु बच्चे को उसकी तर्जनी अंगुली पकड़कर अक्षर लिखना सिखाते हैं। यह समर्पण तत्व का भी द्योतक है। यहां गुरु को अहं का समर्पण किया जाता है। तर्जनी अहंकार का प्रतीक है, क्योंकि इसका प्रयोग दूसरों के दोषों पर अंगुली उठाने में किया जाता है, लेकिन याद रहे, जब हम एक अंगुली दूसरों के दोषों को दिखाने के लिए उठाते हैं तो शेष तीन अंगुलियां हमारी अपनी ओर ही रहती हैं।
इसी अंगुली का समर्पण गुरु को कर देते हैं। इस प्रकार हम गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए तैयार हो जाते हैं। यदि हममें ऐसा समर्पण और विनम्रता हो तो गुरु-कृपा सहज ही हम पर होगी। यदि देवी की कृपा हो तो हम में सब दैवी गुण आ जाएंगे। हम दुख से मुक्त होकर अपने सत्स्वरूप की ओर बढ़ जाएंगे।
वस्तुतः इस उपासना को मात्र नवरात्र के नौ दिनों तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि पूर्णत्व की प्राप्ति तक दिनचर्या का भाग बना कर जारी रखें। कई स्थानों पर कुमारी पूजा नवरात्र का महत्वपूर्ण भाग है। कुमारी पूजा के पीछे यही तत्व है कि हम सब स्त्रियों को जगदंबा के प्रकट रूप मानें। यह सुनकर कोई पूछ सकता है, 'तो क्या पुरुष जगदंबा के रूप नहीं?' हां, सभी प्राणी हैं, किंतु स्त्रैण और पौरुष गुणों का भेद तो व्यावहारिक है ही।
अतः कदाचित् स्त्रियों में उसकी झलक अधिक दिखाई देती है। कुमारी पूजा के लिए दो से 12 वर्ष की कन्याओं को देवी-रूप मानकर उनका पूजन किया जाता है। बचपन निर्दोष व निष्कलंक अवस्था है, इसलिए कन्याओं को नए कपड़े पहनाकर उन्हें उनके प्रिय व्यंजन खिलाते हैं। उनमें देवी का दर्शन कर, उन्हें प्रसन्न किया जाता है, पूजा जाता है। किंतु ईश्वर तो स्त्री और पुरुष दोनों हैं; सब गुणों से अतीत!
आज आधुनिक समाज को पूजा का महत्व समझाना आवश्यक है। ईश्वर करें, दुर्गा देवी के रूप में पूजनीय महिलाओं पर कभी कोई आक्रमण न करें। गलियों-सड़कों या वाहनों में उनके साथ दुर्व्यवहार न करें! जिस नारी को लक्ष्मी देवी के समान रहना चाहिए, वह कभी निर्धन न हो! जिस नारी का सरस्वती देवी के रूप में पूजन होना चाहिए,उसे कभी शिक्षा से वंचित न रखा जाए! जिन स्त्रियों की काली-रूप में पूजा होनी, उनकी कभी अपेक्षा न की जाए, कभी सांवले रंग के कारण उनकी निंदा न हो!
सब स्त्रियों को वह पद, मान-सम्मान प्राप्त हो, जिसकी वे अधिकारी हैं। मां का वात्सल्य भाषातीत होता है। इस मातृ-वात्सल्य का सार है जगदंबा। जगदंबा इस सृष्टि के चर-अचर सब प्राणियों का प्रेम व स्नेह के साथ मार्गदर्शन करती हैं। कहते हैं, जगत के उद्धार एवं धर्म की रक्षा हेतु वो बारंबार अवतार लेती हैं।
समस्त जगत को धारण व उसका पालन करने वाली जगदंबा की पूजा-उपासना करने से हम हर संभव आशीष पा लेंगे। इस तत्व को जान लें और अपने अंदर इस शक्ति के प्रति छोटे बच्चे जैसा समर्पण-भाव और नि:स्वार्थ प्रेम विकसित कर लें तो हमारा जीवन धन्य हो जाए!