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महर्षि वाल्मीकि जयंती: तप से मिलती है ऊंचाई

तप का अर्थ है लक्ष्य पर एकाग्र होना। महर्षि वाल्मीकि ने तप के द्वारा अपने अंतस को इतनी उच्चता दी कि उन्होंने आदि महाकाव्य रामायण का सृजन कर दिया..। महर्षि वाल्मीकि जयंती (1

By Edited By: Updated: Thu, 17 Oct 2013 01:39 PM (IST)

तप का अर्थ है लक्ष्य पर एकाग्र होना। महर्षि वाल्मीकि ने तप के द्वारा अपने अंतस को इतनी उच्चता दी कि उन्होंने आदि महाकाव्य रामायण का सृजन कर दिया..। महर्षि वाल्मीकि जयंती (18 अक्टूबर) पर विशेष..

महर्षि वाल्मीकि ऋषियों के कुल में उत्पन्न हुए और उन्होंने अपनी तप-साधना से इतनी उच्चता प्राप्त कर ली कि उन्होंने काव्य का उद्भव कर डाला। एक कथा के अनुसार, तमसा नदी के तट पर एक क्रौंच पक्षी का बहेलिए द्वारा वध करने पर उनके हृदय से जो करुणा बरसी, वह काव्य बनकर उनके मुख से निसृत होने लगी। यही कारण है कि उन्हें आदि कवि कहा जाता है। वह पहले कवि हैं। मान्यता यह भी है कि मां वाणी (सरस्वती) स्वयं उनकी जिज्जा पर विराजमान हो गईं और दुख से उपजा जो श्लोक निकला, वहींसे संस्कृत कविता का प्रादुर्भाव हो गया। यह श्लोक अनुष्टुप छंद में था। इसी छंद में उन्होंने महाकाव्य 'रामायण' की सर्जना की, जो संस्कृत का आदि ग्रंथ माना जाता है। बाद के संस्कृत के जो अधिकांश ग्रंथ लिखे गए, वे भी अनुष्टुप छंद में ही थे।

मान्यता है कि महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र वरुण थे। उन्हीं के पुत्र थे महर्षि वाल्मीकि। परम ज्ञानी भृगु ऋषि उनके भाई थे। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, भाई भृगु की तरह ही महर्षि वाल्मीकि साधना किया करते थे। एक बार वे ध्यान में बैठ गए, तो उन्हें अपने तन की सुधि ही न रही। वे लंबे समय तक तप करते रहे, जिसके कारण उनके शरीर में दीमकों ने अपना डेरा बना लिया। कहा जाता है कि चूंकि दीमकों की बांबी को वाल्मीकि कहते हैं, इसलिए उन्हें भी वाल्मीकि कहा गया।

उनकी तपस्या की इस कथा से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। साधना और तप का अर्थ है कि अपने लक्ष्य पर एकाग्र होना। महर्षि वाल्मीकि जी ने तप करके अपने अंतस को इतनी उच्चता पर अवस्थित कर दिया कि उनके भीतर से काव्य-रसामृत फूट पड़ा। यदि वाल्मीकि नहीं होते, तो आज काव्य भी नहीं होता। हम उनकी तपस्या से एकाग्र होकर अपने लक्ष्य को पाना सीख सकते हैं। कुछ कथाओं के आधार पर जो लोग यह कहते हैं कि वाल्मीकि पहले दस्यु कर्म में निरत थे, वे संभवत: गलत हैं। क्योंकि ऋषि कुल में उत्पन्न वाल्मीकि के बारे में ग्रंथों में लिखा है कि वरुण के दोनों पुत्र महर्षि भृगु और महर्षि वाल्मीकि परम ज्ञानी थे और प्रारंभ से ही तपस्वी थे।

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