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नवधा भक्ति: सीता हरण के समय दशानन रावण को क्यों करना पड़ा था छल? जानें कपटी व्यक्ति की आध्यात्मिक गति

काकभुशुण्डि जी गरुड़ जी से कह रहे हैं कि जल जब तक दूध में रहता है तब तक दूध के भाव ही बिकता है पर ज्यों ही व्यक्ति उसमें कपट की खटाई डाल देता है तो फिर पानी का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। नवधा भक्ति में इस बार प्रस्तुत है भगवान श्रीराम द्वारा शबरी को दिए गए नौ प्रकार की भक्ति में चौथी भक्ति का मर्म।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 14 Jul 2024 01:56 PM (IST)
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नवधा भक्ति: कपटी व्यक्ति की आध्यात्मिक गति

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन): कपट का दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह है कि कपटी व्यक्ति अपनी जिस बुराई को छिपाता है, अंतर्दृष्टि के अभाव में वही दोष दूसरों में देखता है। सामने वाला व्यक्ति चूंकि पवित्र रहता है तो उसके चरित्र के दर्पण में उसे अपना ही चरित्र दृष्टिगोचर होता है। शीशे के समक्ष यदि स्फटिकमणि रख दी जाए, तो दोनों स्पष्ट रूप से पारदर्शी प्रतीत होंगे। पवित्रता अपने को ही प्रतिबिंबित करती है। इसी कारण भगवान की भक्ति के लिए कपट व्यवहार, कपट वेश, कपटयुक्त स्नेह को भक्ति के उपादानों के रूप में नहीं माना गया है। भगवान ने चौथी भक्ति के लिए हृदय को कपट रहित होना आवश्यक बताया। कपट के रहते हुए भगवद्भक्ति संभव नहीं है :

मन कामना सिद्धि नर पावा।

जो यह कथा कपट तजि गावा।।

तुलसीदास जी कहते हैं- साधक की समस्त कामनाओं की पूर्ति हो जाती है, यदि वह भगवान की कथा को कपट छोड़कर कहे और सुने :

जल पय सरिस बिकाए देखहु प्रीति की रीति भलि।

बिलगु होइ रस जाइ कपट खटाई परत पुनि।।

काकभुशुण्डि जी गरुड़ जी से कह रहे हैं कि जल जब तक दूध में रहता है, तब तक दूध के भाव ही बिकता है, पर ज्यों ही व्यक्ति उसमें कपट की खटाई डाल देता है, तो फिर पानी का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। रावण और मारीच भी कपट रूप धारण कर ही मृत्यु को प्राप्त हुए। रावण द्वारा साधु का वेश बनाकर जाने का तात्पर्य यही है कि रावण को अपने निज स्वरूप पर विश्वास नहीं था। व्यक्ति जब कुछ बनता है, जो होता नहीं है, कपट वहीं से शुरू हो जाता है। जो है, उसे छिपाता है और जो नहीं है, उसे दिखाता है। यह त्रिकाल सत्य है कि माया की इस पद्धति का आश्रय लेने वाले अंत में विनाश को प्राप्त होते हैं। व्यक्ति की मति मारी जाती है और वर्तमान में भोगों का आकर्षण भविष्य को पूरी तरह समाप्त कर देता है। यह परंपरा हर युग में चलती ही रहती है :

तेहि सन निकट दसानन गयऊ।

तब मारीच कपट मृग भयउ।।

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मारीच की अधोगति इसलिए नहीं हुई, क्योंकि उसने कपट का आश्रय अपनी इच्छा और किसी वासना पूर्ति के लिए नहीं लिया था। मारीच के हृदय में भगवान के प्रति प्रेम था। भगवान ने जब 'सुबाहु' और 'ताड़का' का वध किया था, उस समय इस मारीच को बाण मारकर दूर फेंक दिया था। तब से वह भगवान के कृपाबाण का स्वाद जान चुका था, पर रावण के भय के कारण बाहर व्यवहार में उसने कपट का आश्रय लिया और अंदर हृदय में प्रेम को छिपाये रखा। भगवान तो कपट का पट खोलकर भी प्रेम देख लेते हैं और संसार प्रेम में भी कपट खोजता है। भक्ति और प्रेम ये तो प्रदर्शन की वस्तु हैं ही नहीं। ये तो स्वयं प्रकट होते हैं :

अंतरप्रेम राम पहिचाना।

मुनि दुर्लभ गति दीन्ह सुजाना।

नारद जी पर भी जब भगवान ने अपनी माया का विस्तार किया और विश्वमोहिनी ने भगवान के सुदर्शन स्वरूप पर अपने करकमलों से जयमाला पहना दी, नारद जी अपनी मनोकामना को छिपाए हुए देखते रह गए, तब वे भगवान पर ही क्रोधित हो जाते हैं और क्रोध में कह दिया कि तुम्हारा मन कपटी है और शरीर से सज्जन लगते हो :

मन  कपटी  तन सज्जन चीन्हा।

आपु सरिस सबहीं चह कीन्हा।।

भगवान समझ गए कि इनका कोई दोष नहीं है, माया तो मेरी ही है। इनका भी अनावरण करना होगा। भगवान ने अपनी माया हटा ली और पुन: नारद जी अपने भक्त स्वरूप में आ गए और अपने दोषों के साथ भगवान की कृपालुता का वर्णन करके स्तुति करने लगे। भगवान, संत, गुरु, सत्संग और भक्त में जब कपट दिखाई देने लगे तो निश्चित समझ लेना चाहिए कि हमारी ही बुद्धि कपटयुक्त हो गई है। भक्त का तो लक्षण ही यही है कि :

सहज स्वभाव न मन कुटलाई।

जथा लाभ संतोष सदाई।

श्रीरामचरितमानस में प्रतापभानु जैसे श्रेष्ठ राजा ने अपनी कामनाओं को छिपाया और यज्ञाचार्यों के सामने स्वयं को निष्काम यज्ञ करने वाला बताया, पर भावी ऐसी सत्य सिद्ध हुई कि लोभ और महत्वाकांक्षा के अतिरेक में शिकार खेलते-खेलते वह जंगल में भटक गया और लोभ का शूकर उसे जंगल में 'कपट मुनि' के पास ले जाता है। कपट मुनि ने अपना पूर्व रूप प्रकट करके प्रतापभानु से ऐसा कपट कराया कि ब्राह्मणों के भोजन में मांस डलवाकर परोसवा दिया। जब आकाशवाणी हुई, तब ब्राह्मणों ने उसे श्राप दे दिया, जिसका परिणाम हुआ कि प्रतापभानु अगले जन्म में रावण और कुंभकर्ण बन गया। लगभग सभी धर्मग्रंथों में भगवान ने यही कहा है कि आप जैसे हो, वैसे ही आ जाओ। जैसा होना चाहिए, वैसा बना देना ही तो भगवान के सम्मुख होने का फल है :

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।

मोहि कपट छल छिद्र न भावा।

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भक्ति के ही संदर्भ में ही नहीं, अपितु कहीं भी व्यवहार में यदि कपट होगा, कुछ छिपाया और कुछ दिखाया जाएगा तो हमारे कार्य की सिद्धि और पवित्रता संभव नहीं है। इसीलिए भगवान शबरी जी को चौथी भक्ति का उपदेश करते हैं कि कपट साधना के लिए बहुत हानिकारक है।