स्वाधीनता दिवस विशेष: जीवन दर्शन भीतरी पराधीनता से मुक्ति
पराधीनता दो प्रकार की होती है-बाहरी और भीतरी। बाहरी पराधीनता से स्वाधीन होना फिर भी आसान है क्योंकि हमें बाहरी स्वाधीनता की प्रतीति होती है और हम पूरी जान लगाकर उसके लिए प्रयास करते हैं। लेकिन भीतरी पराधीनता से मुक्ति...? हमें तो अपनी इस भीतरी पराधीनता की प्रतीति तक नहीं है फिर स्वाधीनता का प्रयास कैसे होगा? हम आज भी पराधीन हैं - कई स्तरों पर कई रूपों में।
By Priyanka SinghEdited By: Priyanka SinghUpdated: Sun, 13 Aug 2023 03:18 PM (IST)
सद्गुरु (आध्यात्मिक गुरु, ईशा फाउंडेशन) स्वाधीनता किसे अच्छी नहीं लगती? हर किसी की चाह होती है सारे बंधनों से मुक्त होने की। पिंजरे में बंद पक्षी हो या रस्सी से बंधा हुआ पशु, हर प्राणी स्वतंत्रता या स्वाधीनता चाहता है। फिर मनुष्य, जिसकी चेतना इन पशु-पक्षियों से कहीं श्रेष्ठ है, भला वह क्यों नहीं चाहेगा स्वाधीन होना? इसीलिए हर सभ्यता में मनुष्य ने सदैव स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया है। तो क्या आज मानव जाति स्वाधीन है? शायद आप कहेंगे- हां। यह सही भी है, किंतु यदि हम ध्यान से देखें तो हमें समझ आ जाएगा कि सौभाग्य से मानव जाती बाह्य स्वतंत्रता तो पा चुकी है, किंतु दुर्भाग्य से आज बहुत बड़े स्तर पर भीतरी पराधीनता से त्रस्त है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हम अपनी इस भीतरी पराधीनता को ही स्वाधीनता समझने लगे हैं, क्योंकि स्वाधीनता की हमारी सोच अत्यंत बचकानी हो गई है।
पराधीनता दो प्रकार की होती है- बाहरी और भीतरी। बाहरी पराधीनता से स्वाधीन होना फिर भी आसान है, क्योंकि हमें बाहरी स्वाधीनता की प्रतीति होती है और हम पूरी जान लगाकर उसके लिए प्रयास करते हैं। लेकिन भीतरी पराधीनता से मुक्ति..? हमें तो अपनी इस भीतरी पराधीनता की प्रतीति तक नहीं है, फिर स्वाधीनता का प्रयास कैसे होगा? हम आज भी पराधीन हैं - कई स्तरों पर, कई रूपों में। तो क्या है यह भीतरी पराधीनता? किसके अधीन हैं हम?
आपने देखा होगा कि लोग बड़े गर्व से अक्सर कहते हैं, ‘मुझे यह पसंद है, इसलिए मैं यह करके रहूंगा और वह मुझे पसंद नहीं है, इसलिए उसे मैं बिल्कुल नहीं करूंगा, क्योंकि मैं स्वाधीन हूं।’ क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि यह सोच सचमुच आपकी स्वाधीनता से जन्मा है? यह स्वाधीनता नहीं है, यह तो बेबसी है, लाचारी है। पसंद और नापसंद की बेड़ियों में आज लगभग पूरी मानवता जकड़ी हुई है। सभी पारिवारिक झगड़ों की जड़ में लोगों की व्यक्तिगत पसंद और नापसंद ही होती हैं। पसंद और नापसंद को लेकर समाज, राष्ट्र और धर्म तक बंटे हुए हैं। जब हमारे सोच का दायरा बहुत सीमित होता है, हम कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो जाते हैं, फिर हम पर पसंद और नापसंद की सनक सवार हो जाती है। तब हम उसे नहीं देख पाते, जिसकी जरूरत है। हम वही करते हैं, जिसे हम पसंद करते हैं। वह नहीं करते, जिसे किए जाने की आवश्यकता है। फिर शुरू होता है अविराम झंझटों व विवादों का सिलसिला और उसी में उलझकर रह जाता है हमारा लघु-जीवन।
योग परंपरा में भीतरी आयाम को बहुत गहराई से देखा गया और भीतरी पराधीनता से मुक्त होने की कई तकनीकों का आविष्कार किया गया, क्योंकि जो भीतरी पराधीनता का शिकार नहीं है, उसे कोई बाहरी शक्ति उस पर नियंत्रण नहीं कर सकती। पसंद और नापसंद की सनक से मुक्त होने के लिए हमें अपनी चेतना पर काम करना होगा। एक जागरूक व्यक्ति ही यह देख पाने में सक्षम होता है कि किसी विशेष परिस्थिति में क्या आवश्यक है और क्या किया जाना चाहिए। भीतरी पराधीनता से मुक्त होकर हम वह नहीं करते, जो हमें पसंद है, बल्कि वह करते हैं, जो किसी खास परिस्थिति में किया जाना चाहिए। तब हम समस्याएं खड़ी नहीं करते, हम खुद एक समाधान बन जाते हैं। ऐसे इंसान में ही स्थितप्रज्ञ होने की संभावना पैदा होती है, वही व्यक्ति कृपा का पात्र बनता है और एक दिन ईश्वर के द्वार पर दस्तक देता है।