Pitru Paksha 2023: पूर्वजों के प्रति दायित्वबोध कराता है पितृपक्ष
Pitru Paksha 2023 पुराणों में पितृकर्म का यत्र-तत्र पर्याप्त वर्णन उपलब्ध होता है। गरुड़ पुराण में इस कर्म का सांगोपांग वर्णन प्राप्त होता है। आज भी किसी व्यक्ति के निधन के पश्चात गरुड़ पुराण के श्रवण का प्रचलन है। गरुड़ पुराण के अधिष्ठाता भगवान विष्णु हैं इसलिए यह वैष्णव पुराण कहलाता है। इसमें कुल उन्नीस हजार श्लोक हैं जो पूर्व एवं उत्तर दो खंडों में विभक्त हैं।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 24 Sep 2023 12:02 PM (IST)
प्रो. मुरली मनोहर पाठक, नई दिल्ली। यह सर्वविदित है कि हमारे ऋषि-मुनिगण मानवों के हितचिंतक थे। उन्होंने समस्त सांसारिक परिस्थितियों को देखकर विविध शास्त्रों, यथा वेद, वेदांग, पुराण और धर्मशास्त्र आदि ग्रंथों में जनकल्याण हेतु विविध विषयों का वर्णन किया है। उन शास्त्रों में समस्त सांसारिक समस्याओं का अनुभव कर विविध अनुष्ठेय विधियों के मुख्य प्रतिनिधि विषयों के कर्तव्य और अन्य आपद्धर्मों के वर्णन हैं।
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इनमें पितृपक्ष महत्वपूर्ण विषय है, जो हमारे पूर्वजों के प्रति हमारे दायित्वबोध का विशेष अवसर है। पितृकर्म का मूल आधार हमारा वेद है। वेद का एक नाम श्रुति है। इस प्रकार श्रुतियों में जिन कर्मों का उल्लेख है, वे श्रौतकर्म कहलाते हैं। श्रौतकर्म के मुख्यरूप से तीन स्वरूप सर्वप्रथम सामने आते हैं- होम, इष्टि एवं सोम।
अग्निहोत्रादि होमकर्म के अंतर्गत, दर्शपूर्णमासादि इष्टिकर्म के अंतर्गत तथा अग्निष्टोमादि सोमकर्म के अंतर्गत पठित हैं। इष्टिकर्म में जो याग कहे गए हैं, उनमें पिण्डपितृयाग का विधान प्राप्त होता है, जिसके मंत्रों का संहित स्वरूप शुक्लयजुर्वेदीय माध्यन्दिन संहिता के द्वितीय अध्याय में उपलब्ध है।
महर्षि कात्यायन ने अपने श्रौतसूत्र में अपराह्णे पिण्डपितृयज्ञश्चन्द्रादर्शनेऽमावास्यायाम् (का.श्रौ.सू.- 4.1.1) सूत्र द्वारा आहिताग्नि यजमान अमावस्या तिथि को दोपहर के बाद पिण्डपितृयाग करें, ऐसा निर्देश किया है। इसके अतिरिक्त पितृमेध का भी वर्णन किया गया है।
उस विषय में पितृमेधः संवत्सरास्मृतौ (का.श्रौ.सू.-21.3.1) सूत्र द्वारा महर्षि कात्यायन ने सांवत्सरिक (वार्षिक) पितृश्राद्ध का निर्देश दिया है, जिसका मूल शुक्लयजुर्वेदीय माध्यन्दिन संहिता के 35वें अध्याय में उपलब्ध है। इस प्रकार पितृश्राद्ध का महत्व वेदों में व्यापक स्तर पर बताया गया है। इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् ...इस कथन के अनुसार, वेदोक्त विषयों का विस्तारपूर्वक विवेचन पुराणों में भगवान वेदव्यास ने किया है।
तदनुसार, पुराणों में पितृकर्म का यत्र-तत्र पर्याप्त वर्णन उपलब्ध होता है। गरुड़ पुराण में इस कर्म का सांगोपांग वर्णन प्राप्त होता है। आज भी किसी व्यक्ति के निधन के पश्चात गरुड़ पुराण के श्रवण का प्रचलन है। गरुड़ पुराण के अधिष्ठाता भगवान विष्णु हैं, इसलिए यह वैष्णव पुराण कहलाता है। इसमें कुल उन्नीस हजार श्लोक हैं, जो पूर्व एवं उत्तर दो खंडों में विभक्त हैं।पूर्वखंड में सृष्टि वर्णन तथा विविध देवपूजा विषयक विधियों का वर्णन है, इसलिए इस खंड को आधार खंड भी कहा जाता है। उत्तरखंड में महर्षि कश्यप के पुत्र पक्षीराज गरुड़ द्वारा जिज्ञासा किए जाने पर भगवान विष्णु के श्रीमुख से मृत्यु के उपरांत के गूढ़ तथा परम कल्याणकारी वचन प्रकट हुए थे, इसलिए इस पुराण को ‘गरुड़ पुराण’ कहा गया है। जो भी जीव इस संसार से परलोक हेतु प्रयाण करता है, वह प्रेत नाम से संज्ञित होता है।
इस हेतु से उत्तरखंड को प्रेतकल्प भी कहते हैं। ‘प्रेतकल्प’ में 35 अध्याय हैं। इन अध्यायों में मृत्यु का स्वरूप, मरणासन्न व्यक्ति की अवस्था तथा उनके कल्याण के लिए अंतिम समय में किए जाने वाले क्रिया-कृत्य का विधान है। यमलोक, प्रेतलोक और प्रेतयोनि क्यों प्राप्त होती है, उसके कारण, दान-महिमा, प्रेतयोनि से बचने के उपाय, अनुष्ठान और श्राद्धकर्म आदि का वर्णन विस्तार से किया गया है।
इसमें भगवान विष्णु ने गरुड़ को यह सब भी बताया है कि मृत्यु के समय एवं मृत्योपरांत मनुष्य की क्या गति होती है और उसका किन योनियों में जन्म होता है। यह कथा सुप्रचलित ही है कि अपने पूर्वजों के उद्धार हेतु इक्ष्वाकुकुलभूषण महाराज भगीरथ ने कड़ी तपस्या द्वारा सर्वपापापहारिणी, दुर्गतोद्धारिणी माता गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाकर अपने पूर्वजों को प्रेतयोनि से मुक्त करवाया था।
वह भागीरथी गंगा आज भी प्रत्यक्ष हैं। इस प्रकार की अनेकविध कथाएं पुराणों में वर्णित हैं। उन सभी कथाओं में मानव-जीवन के नानाविध जीवनमूल्यों के सूत्र प्रतिपादित हैं, जिनमें जीवन और व्यवहार की शिक्षा प्रदान की गई है। श्रीमद्देवीभगवत में पुत्र का लक्षण बताते हुए भगवान व्यासजी कहते हैं :जीवतो वाक्यकरणात् क्षयाहे भूरिभोजनात्। गयायां पिण्डदानेन त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता।।
अर्थात माता-पिता के जीवित रहते उनके वचनों का पालन करने से, मृत्युतिथि में पितरों के निमित्त नित्य-नैमित्तिक (मासिक, वार्षिक तिथियों में किया गया श्राद्ध तथा अमावस्या महालयादि पर्वों पर अनुष्ठित पार्वण श्राद्धादि) कर्म के उपरांत अधिक से अधिक लोगों को भोजन कराने और गया जाकर पिंडदान करने से पुत्र की पुत्रता सिद्ध होती है।अनेक प्रकार के श्राद्ध कहे गए हैं। प्रमुख 12 श्राद्ध हैं-नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्ध (नांदी आदि), सपिंड, पार्वण, गोष्ठी, शुद्ध्यर्थ, कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ और पुष्ट्यर्थ। इन सभी श्राद्धों में महालया (पितृपक्ष, जो चांद्र मास के अनुसार आश्विन कृष्णपक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक) 15 दिनों का विशेष अनुष्ठान संपूर्ण भारतवर्ष में लगभग प्रत्येक हिंदू परिवार में किया जाता है।
क्या है महालया (पितृपक्ष) : महालय शब्द दो शब्दों के मेल से बना है महान्+आलय अर्थात इन दिनों में महान पितरों का निवास पृथ्वी पर रहता है, इस कारण इस समय को महालया कहते हैं। महालया का काल आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से कार्तिक कृष्ण अमावस्या तक होता है। यही कारण है कि कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीपावली मनाई जाती है। दीपावली के दिन सायंकाल उल्काभ्रमण की प्रथा है, विशेषकर मिथिला में यह प्रथा आज भी जीवित है।उल्काभ्रमण के मंत्र से यह ज्ञात होता है कि उस दिन तक पितरों का निवास इस लोक में रहता है। मंत्र इस प्रकार है :शस्त्राशस्त्रहतानाञ्च भूतानां भूतदर्शयोः। उज्ज्वलज्योतिषा देहं निर्दहेद्व्योमवह्निना।। अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्यदग्धाः कुले मम। उज्ज्वलज्योतिषा दग्धास्ते यान्तु परमाङ्गतिम्।। यमलोकं परित्यज्य आगता ये महालये। उज्ज्वलज्योतिषा वर्त्म प्रपश्यन्तो व्रजंतु ते।।वायुपुराणोक्त इन मंत्रों से ज्ञात होता है कि यमचतुर्दशी अथवा दीपावली को उल्काभ्रमण के बाद पितृपक्ष में आए हुए पितरगण इस मर्त्यलोक से यमलोक को प्रस्थान करते हैं। माना जाता है कि इन दिनों में पितरों के प्रति किया गया श्राद्ध (श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणभोजन, विविध वस्तुओं का दान आदि) पितरों को साक्षात प्राप्त होता है, अतएव पितृपक्ष का संपूर्ण कालखंड पितरों की प्रसन्नता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।लेखक श्री लाल बहादुर शास्त्री केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति हैं।