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Ramlala Pran Pratishtha: मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने अपने पुरुषार्थ से सभी समस्याओं का समाधान किया

Ramlala Pran Pratishtha श्रीराम की प्रीति अंधी भावुकता नहीं वरन नीति पर आधारित है। उनका कोई मित्र नहीं कोई शत्रु नहीं वे नीति से प्रीति रखते हैं। जहां नीति का जितना अंश होगा वहां उनकी प्रीति भी सहज ही उस अनुपात से बढ़ेगी। ऐसी अवतारी सत्ता अपने संपर्क में आने वाले प्रत्येक जीव को ऐसी ही शिक्षा प्रेरणा एवं सहायता देती हैं।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 21 Jan 2024 12:57 PM (IST)
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Ramlala Pran Pratishtha: मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने अपने पुरुषार्थ से सभी समस्याओं का समाधान किया

डा. प्रणव पंड्या। Ramlala Pran Pratishtha: प्रभु श्रीराम नीति के प्रतीक हैं। उन्होंने नीति निष्ठा की स्थापना के लिए अवतार लिया और आजीवन उसका प्रशिक्षण अपने व्यवहार द्वारा करते रहें। उन्हें सद्गुणों का खान भी कहा गया है। मर्यादा का पालन और कर्त्तव्य परायणता में सदा उन्होंने अपना अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया। इन्हीं विशेषताओं के कारण उन्हें पुरुष रूप में पुरुषोत्तम, नर रूप में नारायण कहा जाता है।

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श्रीराम की प्रीति अंधी भावुकता नहीं, वरन नीति पर आधारित है। उनका कोई मित्र नहीं, कोई शत्रु नहीं, वे नीति से प्रीति रखते हैं। जहां नीति का जितना अंश होगा, वहां उनकी प्रीति भी सहज ही उस अनुपात से बढ़ेगी। महामानवों, अवतारों का उद्देश्य नीति की स्थापना और अनीति को नष्ट करना होता है। ऐसी अवतारी सत्ता अपने संपर्क में आने वाले प्रत्येक जीव को ऐसी ही शिक्षा, प्रेरणा एवं सहायता देती हैं।

प्रभु श्रीराम की नीति निष्ठा और उसके प्रति उनकी सतत चेष्टा का विवरण श्रीरामचरितमानस में जगह-जगह उपस्थित है। प्रभु श्रीराम अपने पुरुषार्थ का बखान स्वयं नहीं करते, वानरों को गुरु वशिष्ठ का परिचय कराते हुए कहते हैं कि इनकी कृपा से ही हम असुरों को मारने में समर्थ हुए।

साथ ही वशिष्ठ जी को वानरों के बारे में कहते हैं कि समर सागर में इन्हीं ने सेतु बनाकर हमें पार कराया। ये लोग मुझे भरत के समान प्रिय हैं। इस संवाद में विनयशीलता, कृतज्ञता और सफलता का श्रेय दूसरों को देकर अपनी निरहंकारिता का सुंदर समन्वय है। श्रीराम यश कामना से दूर रहने तथा समाज में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने वाली प्रवृत्ति को न पनपने देने को आवश्यक मानते हैं।

सामाजिकता का नियम है कि उपेक्षित क्षेत्र की सेवा और व्यवस्था को अधिक महत्व दिया जाए। अधिकतर लोग शहरों को ही अपना क्षेत्र बना लेते हैं। श्रीराम वनवास को अपेक्षाकृत अधिक बड़ा कार्य क्षेत्र मानते हैं। वे पिता द्वारा दिये गये विशाल वन-राज्य पर बड़ा संतोष और प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। माता कौशल्या से कहते हैं कि पिता ने मुझे अयोध्या के छोटे राज्य की तुलना में कहीं अधिक वैभव प्रदान किया है। इस क्षेत्र की सेवा करके मैं अधिक सौभाग्यशाली बनूंगा :

पिता दीन्ह मोहि कानन राजू।

जहं सब भांति मोर बड़ काजू।।

श्रीराम ने केवल यह कहा ही नहीं, वरन करके भी दिखाया। ऋषि-मुनियों से लेकर वनवासी, आदिवासी सभी उनके संपर्क का लाभ उठाने को आतुर हो उठे। उनके आगमन की सूचना पाकर अनेक लोग उनके पास आने लगे। प्रभु श्रीराम ने बिना किसी भेदभाव के सभी को अपने सान्निध्य का लाभ दिया। भगवान श्रीराम जाति-वंश को नहीं, व्यक्ति की भावना और कर्म को महत्व देते हैं। जात-पात की दृष्टि से शबरी निम्न वर्ग की थीं, अशिक्षित भी, किंतु उनके प्रीति भरे व्यक्तित्व को महत्व देते हुए भगवान ने उन्हें अपनाया।

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भगवान शबरी से कहते हैं कि मैं सांसारिक जाति वर्ण के आधार पर नहीं, आंतरिक भावना के आधार पर भक्तों से संबंध बनाता हूं। सामाजिकता का नियम है कि अनीति का उचित प्रतिकार किया जाए। भगवान श्रीराम इस दृष्टि से भी आदर्श प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने अनीति को निरस्त करने के लिए बालि और रावण को मारा, उनकी संपत्ति का लाभ लेने के लिए नहीं।

अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए जो आक्रमण किया जाता है, वह हत्या अथवा महापाप की श्रेणी में आता है, किंतु अनीति से जूझने में अपना कोई नुकसान होता हो, तो उसकी परवाह न करना क्षत्रिय धर्म, राज धर्म है। श्रीराम ने सदैव इसी धर्म का पालन किया। बालि का राज्य उसके भाई को दिया और उसके पुत्र अंगद को युवराज बनाया। धर्मरक्षक प्रभु श्रीराम ने अपने सामाजिक दायित्वों का पालन आदर्श ढंग से करके दिखाया। अपने पुरुषार्थ से सभी समस्याओं का समाधान किया तथा किसी भी प्रकार के प्रतिदान के प्रति पूर्ण रूप से निस्पृह बने रहें।