जन्म जयंती: राष्ट्रवादी संत समर्थ गुरु रामदास
जन्म जयंती महज सात वर्ष की आयु में वे हनुमान जी के समान प्रभु राम के परम भक्त बन गये। 12 वर्ष की अवस्था में टाकली नामक स्थान पर उन्होंने प्रभु श्रीराम की 12 वर्ष तक कठोर साधना की। तभी से उनका नाम रामदास पड़ गया।
नई दिल्ली, सांस्कृतिक विषयों की लेखिका पूनम नेगी: समर्थ गुरु रामदास की गिनती राष्ट्रवादी संतों में प्रमुखता से होती है। औरंगजेब जैसे शक्तिशाली व कट्टर मुगल आक्रांता के छक्के छुड़ा देने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज के अंतस में शौर्य और राष्ट्रीयता की भावना भरने वाले समर्थ गुरु रामदास ही थे।
समर्थ गुरु रामदास का जन्म वर्ष 1608 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुआ था। सूर्याजी पंत तथा राणूबाई के पुत्र के रूप में जन्मे इस महामानव के बचपन का नाम नारायण था। कहा जाता है कि बाल हनुमान की तरह वे बचपन में बहुत शरारती थे, किंतु एक दिन मां की डांट ने उनका पूरा जीवन बदल दिया। महज सात वर्ष की आयु में वे हनुमान जी के समान प्रभु राम के परम भक्त बन गये। 12 वर्ष की अवस्था में टाकली नामक स्थान पर उन्होंने प्रभु श्रीराम की 12 वर्ष तक कठोर साधना की। तभी से उनका नाम रामदास पड़ गया। कहा जाता है कि उनकी श्रद्धा भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीराम ने उन्हें दर्शन दिया था।
अपनी तप साधना पूरी करके उन्होंने 12 वर्ष तक कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरे देश की पदयात्र की। भारत भ्रमण के दौरान उन्होंने हिंदूुओं की दुर्दशा तथा उन पर मुगलों के अत्याचार निकट से देखे। वे समझ गये कि हिंदूुओं को संगठित किए बिना देश का उद्धार नहीं हो सकता। अत: उन्होंने मुगल शासकों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाकर देश में स्वराज की स्थापना को अपने जीवन का ध्येय बना लिया।
देश के युवाओं में स्वराज्य की चेतना जगाने के लिए उन्होंने देशभर में असंख्य मठ तथा अखाड़े बनवाये। उनमें हनुमान जी की मूर्ति स्थापित कराई और युवाओं को व्यायाम के लिए प्रेरित किया, ताकि वे स्वस्थ एवं सुगठित होकर विदेशी शासकों के अत्याचारों का मुकाबला करने में सक्षम बन सकें। उनका उद्घोष वाक्य था ‘जय-जय श्री रघुवीर समर्थ’। उसी दौरान उनकी मुलाकात वीर शिवाजी जैसे जाबांज योद्धा से हुई। शिवाजी जैसा योग्य शिष्य पाकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उनका मार्गदर्शक बनकर हिंदू साम्राज्य की आधारशिला रखी। समर्थ गुरु की त्याग-तपस्यामय जीवन-यात्र के अनुभवों का सार उनके प्रमुख ग्रंथ ‘दासबोध’ में संकलित है। माना जाता है कि इस ग्रंथ की रचना उन्होंने शिवाजी को मार्गदर्शन देने के लिए ही की थी।
कहा जाता है कि सात दशकों की उद्देश्यपूर्ण जीवन-यात्र कर उन्होंने जीवन के अंतिम समय में सतारा के पास सज्जनगढ़ के किले को अपना ठिकाना बना लिया। बताते हैं कि तमिलनाडु के तंजावुर में रहने वाले अरणिकर नाम के एक शिल्पकार ने प्रभु राम, माता सीता और लक्ष्मण की मूर्ति बनाकर उन्हें भिजवायी थी। समर्थ गुरु रामदास पांच दिन तक उस देव प्रतिमा के आगे निर्जल उपवास कर 1682 ईस्वी में 73 वर्ष की आयु में पद्मासन में बैठकर रामनाम का जाप करते हुए ब्रह्मलीन हो गये थे। सज्जनगढ़ किले में उनकी समाधि आज भी उनकी पावन स्मृतियों को ताजा करती है।