Samudra Manthan: सांसारिक सुखों की पूर्ति और चिंताओं को दूर करती है पद्मराग मणि
मणि को भक्ति का भी प्रतीक माना गया है। भगवद्भजन और महापुरुषों के सत्संग के अमोघ प्रभाव से जब हृदय से सारे विकार निकल जाते हैं तब केवल भक्ति ही शेष बचती है और यह भक्ति रूपी मणि ही है जो साधक को भगवान से मिलाती है जिससे उसका जीवन धन्य-धन्य हो जाता है। मणि ज्ञान और बुद्धि का भी प्रतीक है।
आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। समद्र मंथन से पांचवें क्रम में कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि निकली, जिसे भगवान श्रीविष्णु ने अपने वक्षस्थल पर धारण कर लिया। इस दिव्यकथा के माध्यम से लोक कल्याण की दृष्टि से बहुत सुंदर रूपक प्रकाशित किया गया है। हृदय ही सागर है और मन मंदराचल पर्वत तथा शेषनाग ही बुद्धिरूपी रस्सी हैं।
जब इन तीनों के संयोग से हृदय सागर का मंथन होता है, तब अनेक वस्तुएं प्रकट होती हैं। कौस्तुभ का अर्थ होता है समुद्र। यह संसार ही सागर है, जहां मनोमंथन चलता ही रहता है और भांति-भांति की लुभावनी वस्तुएं प्रकट होती रहती हैं। उसमें न उलझ कर जब साधक भगवद्भक्ति का अवलंबन नहीं छोड़ता है, तब वह भक्ति के अमोघ प्रभाव से स्वयं मणिस्वरूप हो जाता है, जिसे भगवान अपने हृदय से लगाकर स्वयं और भक्त को धन्य-धन्य कर देते हैं।
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विष्णु शब्द का अर्थ होता है- जो देश, काल और वस्तु की सीमाओं से मुक्त हो। जो सब में परिव्याप्त है और सब उसमें; उसे आचार्यों ने विष्णु अर्थात परब्रह्म परमेश्वर श्रीहरि कहा है। मणि को सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है, जिसके दिव्य प्रभाव से जीवन में संतुलन और स्थिरता का विकास होता है। मणि को भक्ति का भी प्रतीक माना गया है। भगवद्भजन और महापुरुषों के सत्संग के अमोघ प्रभाव से जब हृदय से सारे विकार निकल जाते हैं, तब केवल भक्ति ही शेष बचती है और यह भक्ति रूपी मणि ही है, जो साधक को भगवान से मिलाती है, जिससे उसका जीवन धन्य-धन्य हो जाता है।
मणि के संदर्भ में श्रीमद्भागवतमहापुराण के माहात्म्य में वर्णित है- 'चिंतामणिर्लोकसुखम्' अर्थात् मणि समग्र लोक सुख को प्रदान करने वाली है, समस्त सांसारिक कामनाओं की संपूर्ति करती है। सारी लौकिक चिंताओं का हरण कर लेती है। जब कोई साधक नश्वर लौकिक जगत के समस्त आकर्षणों के प्रति उदासीन हो जाता है, तब उसमें विमलबुद्धि का प्रकाश होता है, जिसके सुप्रभाव से उसे 'वासुदेवः सर्वम्' का सम्यक बोध हो जाता है।
मणि को ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक माना गया है। श्रीरामचरितमानस में मणि को आध्यात्मिक चेतना का समुत्कृष्ट स्वरूप बताया गया है। यह दिव्य चेतना ही जीव को भगवान के शाश्वत स्वरूप का बोधत्व प्रदान करती है। भगवान का नाम ही महामणि है, जिसके अवलंबन के अखंड प्रभाव से अभाग्य का लेख मिट जाता है। साधक के तीनों प्रकार के तापों आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक का शमन हो जाता है। यहां महा का भावार्थ है-भगवान्। 'मंत्र महामनि विषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के।।'
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अब यहां प्रश्न उठता है कि भगवान विष्णु ने इस कौस्तुभ मणि को अपने वक्षस्थल पर ही क्यों धारण किया? इसका यह संकेत है, जो भक्त संसार के नश्वर पदार्थों के सौंदर्यादि के आकर्षण से प्रभावित नहीं होता, अपितु सतत भगवान का भजन करता है, उस पुण्यात्मा भक्त को प्रभु अपने हृदय में स्थान देते हैं। मणि और कुछ नहीं अपितु संत-महापुरुषों की निष्काम विमल भक्ति है। भगवान के भक्तजन ही कौस्तुभ मणि हैं अर्थात उनकी शक्ति हैं, जिससे अखिल ब्रह्मांड में ज्ञान, बुद्धि, चेतना और संतुलन का समन्वय स्थापित होता है।