Sharad Purnima 2023: रासलीला जीवात्मा का परमात्मा के साथ संबंध स्थापित करने की व्याख्या है
भगवान की रासलीला आत्माराम की लीला है। अपने साथ अपनी ही क्रीड़ा है जैसे बालक अपने प्रतिबिंब को जल या दर्पण में देखकर उसके साथ क्रीड़ा करता है उसी प्रकार भगवान बिंब रूप होते हुए अपने ही प्रतिबिंब गोपियों के साथ रमण करते हैं। रासलीला ब्रह्मानुभव का रहस्य प्रकट करती है परमात्मा के साथ अनेक संबंध बांधकर जीवात्मा भगवत्स्वरूप प्राप्ति की चेष्टा करता है।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 22 Oct 2023 03:28 PM (IST)
वैष्णावाचार्य अभिषेक गोस्वामी (श्री राधा रमण मंदिर, वृंदावन)। रस शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है, एक आस्वाद, दूसरा आस्वाद्यमान। रस्यते आस्वाद्यते इति रस:, ‘रसते इति रस:‘, ‘आस्वाद्यत्वाद रस:, ‘रसो वै स:। उक्त परिभाषाएं रस के दोनों तत्वों की और संकेत करती हैं अर्थात जो आस्वाद और आस्वाद्यमान दोनों धर्म विशिष्ट रस से युक्त हो, वह रास कहलाता है।
अपनी-अपनी धार्मिक भावनाओं के अनुसार विद्वानों ने महारास या रासलीला के अनेक अर्थ किए हैं। गोपियां वेद की ऋचाएं हैं और श्रीकृष्ण अक्षर ब्रह्म वेद पुरुष। जिस प्रकार शब्द और अर्थ का नित्य संबंध है, ऋषियों और वेद का नित्य संबंध हैं, इसी प्रकार गोपियों और कृष्ण का नित्य संबंध और विहार ही रासलीला है। सांख्यवादियों के अनुसार, रासलीला प्रकृति के साथ पुरुष का विलास है। गोपियां प्राकृत स्वरूप में अंतःकरण की वृत्तियां हैं, भगवान श्रीकृष्ण पुरुष हैं। प्रकृति के अनेक विलास देख लेने के बाद अपने स्वरूप में स्थित होना रासलीला का रहस्य है।
योग शास्त्र के अनुसार, अनाहत नाद भगवान श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि है। अनेक नाड़ियां गोपियां हैं। कुल कुंडलिनी श्रीराधिका रानी हैं। सहस्र दल कमल ही सुरम्य वृंदावन है, जहां आत्मा-परमात्मा का आनंदमय सम्मिलन रासलीला है। आत्मशक्ति को प्रधानता देने वाले विद्वान पूर्णानंद में आत्मा का लीन होने को रासलीला मानते हैं। उनके अनुसार, गो शब्द का अर्थ इंद्रिय है, जिस प्रकार इंद्रियां या उनकी वृत्तियां एक मन एक प्राण होकर अंतरात्मा में विलीन होने की तैयारी करती हैं, उसी प्रकार वंशीध्वनि से गोपियां कृष्ण की ओर गति करती हैं। किंतु अहमन्यता के स्फुरण के कारण पूर्ण मग्नता की दशा प्राप्त नहीं होती।
आत्म प्रकाश पर अहंकार का आवरण पड़ जाता है, किंतु कृष्ण रूपी आत्मज्योति प्रकाशित होते ही अहंकार का आवरण नष्ट हो जाता हैं। वियोगानुभूति से संयोग के लिए तीव्र प्रेरणा होती है, पुन: दर्शन होता है और उनके साथ महारास होता है। यही है आत्मा का पूर्णानंद में विलीन होना।भगवान की रासलीला आत्माराम की लीला है। अपने साथ अपनी ही क्रीड़ा है, जैसे बालक अपने प्रतिबिंब को जल या दर्पण में देखकर उसके साथ क्रीड़ा करता है, उसी प्रकार भगवान बिंब रूप होते हुए अपने ही प्रतिबिंब गोपियों के साथ रमण करते हैं। रासलीला ब्रह्मानुभव का रहस्य प्रकट करती है, परमात्मा के साथ अनेक संबंध बांधकर जीवात्मा भगवत्स्वरूप प्राप्ति की चेष्टा करता है। यह संबंध काम, क्रोध, भय, स्नेह, एकता और भक्ति के द्वारा सिद्ध होता है। अतः रासलीला जीवात्मा का परमात्मा के साथ संबंध स्थापित करने की व्याख्या है।
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जीव जगत और परमात्मा का एकत्व ही इस लीला का प्रतिपाद्य हैं। उपनिषदों में रसो वै एस: अर्थात भगवान रस माने गए हैं। रस को प्राप्त करने पर ही परमानंद की प्राप्ति होती है। यं लब्धा परमानंदो भवति। उसी आनंद रूप विभु से प्राणी मात्र उत्पन्न होते हैं, यही रस रूप ब्रह्म जीव और जगत का केंद्रबिंदु है और उसकी परिधि ही यह ब्रह्मांड है। ‘रसो वै स:’ का संकेत अति गंभीर अनुभूति पर आधारित है। यह अनुभूति इंद्रियजन्य नहीं, अपितु भावना द्वारा उद्भाव्य वस्तु है। मन की भी यहां उन्मुक्तावस्था रहती है। यह स्थिति काव्यानंद से भी आगे की स्थिति है। रस नित्य है। आत्मा भी नित्य है। नित्य रस का आनंद नित्य आत्मा ही ले सकती है। यही नित्य वृंदावन की नित्य रासलीला हैं। अनन्य भक्त इसका अनुभव करता है।
जीव जगत और परमात्मा का एकत्व ही इस लीला का प्रतिपाद्य हैं। उपनिषदों में रसो वै एस: अर्थात भगवान रस माने गए हैं। रस को प्राप्त करने पर ही परमानंद की प्राप्ति होती है। यं लब्धा परमानंदो भवति। उसी आनंद रूप विभु से प्राणी मात्र उत्पन्न होते हैं, यही रस रूप ब्रह्म जीव और जगत का केंद्रबिंदु है और उसकी परिधि ही यह ब्रह्मांड है। ‘रसो वै स:’ का संकेत अति गंभीर अनुभूति पर आधारित है। यह अनुभूति इंद्रियजन्य नहीं, अपितु भावना द्वारा उद्भाव्य वस्तु है। मन की भी यहां उन्मुक्तावस्था रहती है। यह स्थिति काव्यानंद से भी आगे की स्थिति है। रस नित्य है। आत्मा भी नित्य है। नित्य रस का आनंद नित्य आत्मा ही ले सकती है। यही नित्य वृंदावन की नित्य रासलीला हैं। अनन्य भक्त इसका अनुभव करता है।