श्रावण विशेष: गावत संतत संभु भवानी
श्रावन मास में भगवान शिव की उपासना का विशेष महत्व है. वेद एवं विविध पुराणों में भगवान शिव की महिमा का वर्णन विस्तार से किया गया है. बता दें कि सावन के इन दिनों में शिव की भक्ति करते हुए हम उनकी तरह संतोषी बनना भी सीखें। साथ ही व्यक्ति को कर्मशील होना चाहिए प्रमादी नहीं। शास्त्रों में प्रमाद को मृत्यु बताया गया है।
By Jagran NewsEdited By: Shantanoo MishraUpdated: Sat, 05 Aug 2023 11:50 AM (IST)
मोरारी बापू (प्रसिद्ध कथावाचक) । शिव वो हैं, जो सब कुछ सहजता के साथ लेते हैं। शिव भक्ति का एक अर्थ यह भी है कि सब कुछ सहजता के साथ किया जाए और सब कुछ सहजता के साथ लिया जाए। व्यक्ति मुस्कुराए तो सहजता के साथ और रोये तो भी सहजता के साथ। भगवान शिव इतने सहज हैं कि देवों के देव होने के बावजूद वो नाचते भी हैं, गाते भी हैं, मुस्कुराते भी हैं। जैसे महाभारत में कृष्ण ने गीता गाई, तुलसीदास श्रीरामचरितमानस गाते हैं, वैसे ही भगवान शिव भी गाते हैं :
गावत संतत संभु भवानी,अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी।
भगवान शिव ने माथे पर वक्रचंद्र को धारण किया है। यह एक संकेत है कि तुम में चाहे कितनी ही वक्रता हो, मैं तुम्हें स्वीकार कर लूंगा। सब कुछ स्वीकार कर लेना बहुत बड़ी बात होती है। कोई कैसा भी हो, उसे स्वीकार कर लिया जाए। हम स्वीकार करने के बजाय दूसरों को सुधारने में लग जाते हैं और यह काम कभी हो नहीं पाता। इससे अकारण ही संघर्ष पैदा होता है। शिव सहज भी हैं और सबको स्वीकार भी करते हैं, साथ ही उनमें संतोष भी है। सावन के इन दिनों में शिव की भक्ति करते हुए हम उनकी तरह संतोषी बनना भी सीखें।
मैं हमेशा कहता हूं कि व्यक्ति को कर्मशील होना चाहिए, प्रमादी नहीं। शास्त्रों में प्रमाद को मृत्यु बताया गया है। लेकिन शिवजी की तरह संतुलन रखना भी हमें आना चाहिए। शिव परिवार में वाहन के रूप में मोर भी है, चूहा भी है, बैल भी है और शेर भी है। सांप भी शिव के साथ रहते हैं। ये सब एक-दूसरे के शत्रु हैं, लेकिन परिवार में सब मिल-जुल कर रहते हैं। सबके बीच संतुलन बनाकर भगवान महादेव चलते हैं।
व्यक्ति को कर्मशील रहना चाहिए, मगर सहज संतुलन भी आवश्यक है। आज की युवा पीढ़ी अधिक व्यस्त है। उसकी इतनी व्यस्तता चिंता का कारण है। व्यस्तता का बड़ा कारण तकनीक का अधिक प्रयोग भी है। युवा चिंतन में लगे रहते हैं। कम समय में अधिक से अधिक काम करना चाहते हैं। समुद्र मंथन का कार्य तो भलाई के लिए हो रहा था और रत्न निकल भी रहे थे, परंतु न तो देवताओं को संतोष था और ना ही असुरों को। अधिक से अधिक रत्न निकालने की चाह में मंथन होता गया और एक समय ऐसा आया, जब विष निकलने लगा, जिसे पीने को कोई तैयार नहीं था। सब त्राहि-त्राहि करते हुए भगवान शिव के पास पहुंचे।
भगवान शिव ने विष को पिया और श्रीराम का नाम लिया। युवा नई तकनीक का प्रयोग करें, खोज करें, लेकिन आवश्यकता से अधिक चिंतन न करें। लगातार नई तकनीक में डूबे रहने की आदत का प्रभाव नकारात्मक होता है। आवश्यकता से अधिक मंथन से विष ही निकलता है। आज के समय में विष क्या है? काम, क्रोध, लोभ और मोह तो फिर भी कुछ न कुछ अंश में सांसारिक जीवन के भाग हैं।प्रत्येक व्यक्ति में इसका कुछ भाव होना स्वाभाविक है, लेकिन ईर्ष्या, द्वेष व निंदा का जीवन में कोई काम नहीं है। ये ही समुद्र मंथन से निकले हलाहल (विष) के समान हैं। अब धर्म क्षेत्र में भी ईर्ष्या, द्वेष व निंदा का असर है जो उचित नहीं है। अगर हमें शिव की भक्ति करनी है तो इस विष का पान भी करना होगा। भगवान शिव भक्ति भी देते हैं और मुक्ति (मोक्ष) भी। मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि मोक्ष क्या है? मेरा सीधा सा जवाब है कि आज के काल में ईर्ष्या, निंदा और द्वेष से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है। इस मोक्ष की प्राप्ति शिव की भक्ति द्वारा हो सकती है।