Shri Ram Kinkar Ji Maharaj: जानें, क्यों पुण्य करने के बाद भी पापों का नाश नहीं होता ?
गोस्वामीजी का तात्पर्य यह है कि पहले पुण्य के द्वारा पाप को काटिए और फिर पुण्य को जो स्वयं में एक मलिनता है। भगवान की प्रेम-भक्ति के जल से उसे भी धो डालिए नहीं तो यदि पुण्य होगा तो पुण्याभिमान भी होगा। यह वृत्ति आए बिना नहीं रहेगी कि मैं पुण्यात्मा हूं। सारे दुर्गुण भले हारकर चले जाएं पर अहंकार का दुर्गुण नहीं जाता।
श्रीरामकिंकर जी महाराज। सद्गुण देवगण हैं और दुर्गुण दैत्यगण। जब इनका युद्ध होता है तो दिखाई पड़ता है कि सद्गुण कभी-कभी ही विजयी होता है। बहुधा विजय दुर्गुण की ही होती है। सद्गुणों द्वारा दुर्गुणों का पूरी तरह विनाश कभी नहीं होता। सांकेतिक भाषा में गोस्वामीजी लिखते हैं - छूटइ मल कि मलहि के धोएं। क्या मैल कभी मैल के द्वारा धोने से छूट सकता है? गोस्वामीजी ने पुण्य साधना को भी मैल कह दिया। बड़ी अटपटी बात लगती है। दुर्गुण को तो मल कहते ही हैं, पर सद्गुण को मल कहने का क्या अभिप्राय? गोस्वामीजी के कथन में गूढ़ तत्व है। जब हमारे कपड़ों में गंदगी आ जाती है तो उसे साफ करने के लिए हम साबुन का प्रयोग करते हैं। साबुन से वस्त्र की मलिनता दूर हो जाती है।
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यह बात तो ठीक है, पर क्या साबुन भी स्वयं में मलिन नहीं है? आप कपड़े में साबुन लगा लीजिए और बिना जल में धोये धूप में सुखा दीजिए और पहनिए। क्या उसमें मलिनता नहीं होगी? इसलिए हम पहले साबुन से गंदगी को छुड़ाते हैं और फिर उस साबुन को जल से छुड़ाते हैं, तब कपड़ा पहनने योग्य होता है। तात्पर्य यह कि गंदगी को दूर करने के लिए साबुन की आवश्यकता है, पर साबुन भी एक प्रकार की गंदगी है, जिसे छुड़ाने के लिए स्वच्छ जल भी आवश्यक है। इसी प्रकार सद्गुण भी दुर्गुणों की ही तरह मल है, अत: उसे भी दूर करना आवश्यक है। वह दूर कैसे हो? गोस्वामीजी लिखते हैं -
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई।
अभिअंतर मल कबहुं न जाई।।
यह मल प्रेम-भक्ति रूपी जल के बिना दूर नहीं होता। गोस्वामीजी का तात्पर्य यह है कि पहले पुण्य के द्वारा पाप को काटिए और फिर पुण्य को, जो स्वयं में एक मलिनता है। भगवान की प्रेम-भक्ति के जल से उसे भी धो डालिए, नहीं तो यदि पुण्य होगा तो पुण्याभिमान भी होगा। यह वृत्ति आए बिना नहीं रहेगी कि 'मैं पुण्यात्मा हूं।' सारे दुर्गुण भले हारकर चले जाएं, पर अहंकार का दुर्गुण नहीं जाता। मैंने दान किया, मैंने यज्ञ किए, मैं सत्यवादी हूं, यह भाव रह ही जाता है। गोस्वामीजी 'विनय-पत्रिका' में एक विलक्षण बात लिखते हैं -
करतहुं सुकृत न पाप सिराही।
रक्तबीज जिमि बाढ़त जाहीं।।
पुण्य करके भी पापों का नाश नहीं होता। रक्तबीज की तरह ये पाप बढ़ते ही जाते हैं। गोस्वामीजी का तात्पर्य यह है कि पुण्य है तलवार और पाप है रक्तबीज। इस पुण्य की तलवार के द्वारा जब पाप के रक्तबीज पर प्रहार होगा तो उससे लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो जाएंगे अर्थात पाप को मिटाने के लिए जितने पुण्य किए जाएंगे, वे सब 'मैं', 'मैं' का रूप धारण कर आ खड़े होंगे। प्रत्येक पुण्य के साथ एक-एक 'मैं' लग गया - मैं सत्यवादी हूं, मैं दानी हूं, मैं यज्ञकर्ता हूं, मैं पंडित हूं, मैं तपस्वी हूं - मानो कितने ही रक्तबीज पैदा हो गए। तब प्रश्न उठ खड़ा होता है - तो क्या पुण्य करना बंद कर दें?
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गोस्वामीजी विनय-पत्रिका में कहते हैं -
हरति एक अघ-असुर-जालिका।
तुलसिदास प्रभु कृपा कालिका।।
इस पापरूपी राक्षसों के समूह का नाश तो केवल प्रभु की कृपारूपी कालिका ही कर सकती है, पुण्यरूपी कृपाण के सहारे। कथा आती है कि कालिका देवी कृपाण उठाकर रक्तबीज पर प्रहार करती हैं, पर उसके रक्त को भूमि पर गिरने नहीं देतीं, तभी रक्तबीज मरता है। इसी प्रकार जब प्रभु कृपा रूपी कालिका पुण्यरूपी कृपाण के द्वारा पापरूपी रक्तबीज पर प्रहार करती हैं, तभी यह अहंकार का राक्षस मारा जाता है।
केवल पुण्य के द्वारा पाप नष्ट नहीं होता। प्रत्येक पुण्य के साथ 'अहं' की वृत्ति लगी रहती है और वह तभी नष्ट होती है, जब प्रभु की कृपा होती है। प्रभु की कृपा पुण्य के अभिमान और पाप रूपी आंतरिक और बाह्य बुराई को नष्ट कर देती है। साधक को पुण्य करना चाहिए, साधन करने चाहिए, पर साधन के फल में भगवान की कृपा को मानकर उस फल प्रसाद को स्वीकार करके अपने जीवन को और समाज को अमृत का प्रसाद वितरण करना चाहिए।