Message by Swami Avdheshanand Giri: परमात्मा ही है सत, चित और आनंद स्वरूप- स्वामी अवधेशानंद गिरि
Swami Avdheshanand Giri Message नव वर्ष शुरू हो चुका है। श्रीपंच दशनाम जूना अखाड़ा हरिद्वार के जूनापीठाधीश्वर आचार्यमहामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि से जानिए कि नए साल व्यक्ति को कैसे अपना जीवन यापन करना चाहिए। नए साल के लिए स्वामी जी दे रहे हैं ये संदेश।
By Shantanoo MishraEdited By: Shantanoo MishraUpdated: Mon, 02 Jan 2023 04:05 PM (IST)
नई दिल्ली, स्वामी अवधेशानंद गिरि | New Year 2023 Message by Swami Avdheshanand Giri: भारत अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं का पालन बहुत ही गंभीरता से करता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह मनुष्य को अभिव्यक्ति और सामाजिक समरसता में वृद्धि का संदेश देते हैं। सनातन परंपरा व्यक्ति को सहिष्णुता, शांति, समन्वय, समर्पण, सहअस्तित्व, त्याग और अहिंसा का संदेश देते हैं। अब जब नया साल शुरू हो चुका है तो यह संदेश नव वर्ष के लिए महत्वपूर्ण माने जाते हैं। कुछ ऐसे ही संदेश दे रहे हैं श्रीपंच दशनाम जूना अखाड़ा, हरिद्वार के जूनापीठाधीश्वर एवं आचार्यमहामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि।
संदेशआनंद जीव का मूल स्वभाव है, इसलिए जब हम शाश्वत आह्लाद की खोज कर रहे हों तो यह समझना आवश्यक है कि वह हमें बाह्य जगत से प्राप्त नहीं होगा। शास्त्रों में परमात्मा को सत, चित व आनंद स्वरूप माना गया है। परमात्मा का अंश स्वरूप होने के कारण जीवात्मा में भी वही दिव्य भगवदीय सामर्थ्य विद्यमान है। स्थायी आनंद इंद्रियों से परे आत्मानुभूति का विषय है। बाह्य जगत के वस्तु पदार्थ अस्थिर और अतृप्ति कारक हैं, इसलिए उनसे स्थायी सुख की अपेक्षा करना व्यर्थ है। हमें यह समझना होगा कि प्रसन्नता पदार्थ सापेक्ष नहीं, अपितु चिंतन एवं विचार सापेक्ष है। हम अज्ञान के कारण भौतिकीय उत्कर्ष को ही सुख और समृद्धि का मानक समझते हैं।
अब प्रश्न उठता कि यदि जीव आनंद स्वरूप है तो उसके आसपास दुखों का संसार क्यों दिखाई देता है अथवा हमें शाश्वत आह्लाद की प्राप्ति के लिए कौन-सा पुरुषार्थ करना चाहिए? यह संसार प्रतिपल परिवर्तनशील है। जैसे दिवस को ही रात होना है और रात फिर बदलकर प्रभात बन जाएगी। प्रभात दोपहर में बदलेगा और दोपहर ढलते हुए सांझ बन जाएगी। श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, 'देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा' अर्थात इस देह की भी तीन अवस्थाएं हैं-बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था। इसका आशय यह है कि शरीर में भी नित्य परिवर्तन हो रहा है। हमारा मन और बुद्धि भी कहां स्थिर हैं। मन कभी प्रसन्न रहता है और कभी खिन्न। ठीक यही दशा बुद्धि की भी है। जो जगत स्वयं अस्थिर है, नाशवान है और सीमित सामर्थ्य वाला है, उससे अपेक्षा रखना और नश्वर वस्तुओं के प्रति आसक्ति ही मनुष्य के दुख का मूल कारण है।
हमें स्थायी आनंद की प्राप्ति के लिए स्वयं को जानना होगा। गीता में अध्यात्म को स्वभाव की यात्रा कहा गया है अर्थात स्वरूप सिद्धि के लिए अथवा जो हम हैं, उसके ज्ञान व आत्मबोध के लिए हमें आध्यात्मिक जीवन शैली का अनुगमन और अनुशीलन करना चाहिए। सुख का मूल स्रोत परमात्मा हैं और वह हमारे भीतर ही विद्यमान हैं। किंतु, बाह्य जगत के झंझावात व इंद्रियों के भ्रमजाल के कारण हम शाश्वत आह्लाद से वंचित और विमुख हैं। इसलिए हमें सत्संग, स्वाध्याय व सद्विचारों का आश्रय लेकर आत्मानुसंधान के लिए तत्पर रहना चाहिए। जीवन का वास्तविक सुख और आनंद यही है।