Navadha Bhakti: जीवन में ज्ञान, भक्ति और कर्म का सामंजस्य आवश्यक है
सीता जी की खोज में भगवान श्रीराम की चिर प्रतीक्षारत शबरी से भेंट होती है जहां वे उन्हें नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं। वहां वे शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं। इसी क्रम में भगवान द्वारा गुरुचरणों की सेवा को तीसरी भक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान राम भक्तिमयी शबरी के दर्शनों को गुरुदेव के चरणों की सेवा का फल मान रहे हैं।
स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक-श्री रामकिंकर विचार मिशन)। गुरु चैतन्य हैं। शाश्वत हैं। निरंजन (निरावृत स्थूल नेत्रों से भी न दिखने वाले) हैं। गुरु स्थावर (स्थिर) और जंगम (चलायमान) हैं। उन गुरुदेव की महिमा अनंत है। अभिमान को उन गुरुदेव के चरणों में अर्पित कर उनके तद्रूप हुआ जा सकता है, जो स्वयं तत रूप ही हैं। तत्वमसि उन्हीं की कृपा से सिद्ध होता है। रामायण में सीता जी को भक्ति का और लक्ष्मण जी को वैराग्य का रूप माना गया है, जबकि श्रीराम को साक्षात घनीभूत ज्ञान माना गया है।
चैतन्यं शाश्वतं शांतं व्योमातीतं निरंजनम्।
नाद बिंदु कलातीतं, तस्मै श्री गुरवे नम:॥
ज्ञान पाना हो या भक्ति, बीच में वैराग्य का होना परम आवश्यक है। श्रीलक्ष्मण अभिमान रहित वह वैराग्य हैं, जिनसे ज्ञान राम और भक्ति सीता का रक्षण होता है। लंकापति रावण द्वारा श्रीसीता जी का हरण तभी हुआ, जब लक्ष्मण वहां नहीं थे। यद्यपि वे सर्वश्रेयस्करी हैं। जिस साधक की सीता जी के चरण कमलों में रति है, उसकी मति सुमति होगी। उसे आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक कोई कष्ट नहीं होगा।
भौतिक दृष्टि से सीता जी को खोजते हुए भगवान श्रीराम शबरी जी के पवित्र आश्रम में पहुंच जाते हैं। वहां वे शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं। इसी क्रम में भगवान द्वारा गुरुचरणों की सेवा को तीसरी भक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान राम भक्तिमयी शबरी के दर्शनों को गुरुदेव के चरणों की सेवा का फल मान रहे हैं। संयोग से शबरी जी स्वयं भी अपने गुरुदेव ऋषि सरभंग जी की सेवा कर चुकी हैं, किंतु पूरे जीवन काल में शबरी जी ने कभी गुरुसेवा के बदले किसी सांसारिक या परमार्थिक इच्छा प्रकट नहीं की।
शबरी जी गुरुदेव के चरणोदक को ही तीर्थ-जल मानती हैं। गुरु चरण ही विश्वास रूप अक्षय वट है। गुरु ही वे तीर्थराज प्रयाग हैं, जहां भक्ति की गंगा, कर्म रूप यमुना और ज्ञानमयी सरस्वती प्रवहमान हैं। जीवन में ज्ञान, भक्ति और कर्म का सामंजस्य आवश्यक भी है। गुरु का ध्यान करना चाहिए। गुरु के नाम का जप करना चाहिए और उनको वचनों में कहे गए सूत्र वाक्यों का अनुसरण करना चाहिए। गुरु से कुछ याचना करना ही नहीं है।
यह पढ़ें: मानसिक तनाव से पाना चाहते हैं निजात, तो इन बातों को जरूर करें आत्मसात
प्राप्ति की इच्छा अभाव को ही दर्शाता है। भक्त को जो प्राप्त है, वह उसी में परिपूर्ण रहकर उन साधनों का रक्षण लोक कल्याण के लिए करता है। जिस प्रकार भौंरा कमल के मकरंद का सेवन करते हुए कमल को कोई आघात नहीं पहुंचाता, उसी तरह शबरी जी ने अपने गुरुदेव की सेवा को ही कृपा-फल मानकर सेवा की। वस्तुत: भक्ति का चरम फल भक्ति ही होता है, क्योंकि यदि भक्ति को साध्य के स्थान पर साधन बना दिया जाएगा तो भविष्य में साधक भगवान को भी साधन बनाकर संसार की मायिक वस्तुओं की ही याचना करने लगेंगे।
यदि भक्ति प्रेय नहीं है तो प्रेय संसार ही होगा। जिस दिन भक्ति प्रेय लगने लगेगी, संसार और साधन परम श्रेय रूप होकर भक्ति व मुक्ति के साधन हो जाएंगे। भक्ति में संसार के भोग्य पदार्थों का अर्पण भगवान को करके संसार के असत रूप मिथ्या संसाधनों से मोक्ष देने वाला भी भक्ति को ही माना जाता है और फिर वही सत रूप प्रसाद भी बन जाता है। शबरी जी ने भगवान को विपत्ति में देखा और निवारण के लिए वे भगवान के सहयोग के लिए उन्हें सुग्रीव से मिलने की प्रेरणा देती हैं।
यह पढ़ें: पाना चाहते हैं जीवन में सुख और शांति, तो इन बातों का जरूर रखें ध्यान
यहीं से हनुमान जी से मिलने का मार्ग प्रशस्त होता है। भगवान में तनिक भी अभिमान होता तो वे कभी सुग्रीव जैसे कमजोर वानर से मित्रता स्वीकार न करके उसके भाई बालि से मित्रता करते। यह बुद्धिसंगत था, भावसंगत नहीं। ईश्वर यहां शिक्षा दे रहे हैं कि यदि जीवन में खोई हुई भक्ति को पुन: प्राप्त करना है तो हमें अभिमान रहित होकर समाज के सबसे कमजोर व्यक्ति को साथ लेना होगा, क्योंकि शबरी ने श्रीराम को बालि से मित्रता करने की सलाह नहीं दी, उन्होंने सुग्रीव से मित्रता का प्रस्ताव रखा था। गुरु निष्ठा, भक्ति में असीम धैर्य, ईश्वर रूप जो अमृतत्व है, उसी को प्रेमाश्रुओं में घोलकर प्रभु चरणों का पाद प्रक्षालन करना शबरी की भक्ति के उपादान हैं जो भक्ति के अभिन्न निमत्तोपादान कारण प्रभु राम से मिलकर एकाकार हो गए।
तुलसीदास जी ने यहां पर मान रहित रहकर भक्ति की बात कही है। इसका तात्पर्य है कि गुरु चरणों की सेवा में यदि कर्तृत्व अभिमान आ गया तो केवल अभिमान ही बचता है, भक्ति समाप्त हो जाती है। साधक कितना भी गुरुभक्ति की बात करें, पर गुरु में शरीर भाव आ ही जाता है। जिस गुरु के वचनों में सूर्य की किरणों की भांति मोह रात्रि के समूलोच्छेदन की शक्ति होती है, हम उसमें शब्द और व्याकरण से बहुत ऊपर का शिरोमणि भावशिखर है।