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नवधा भक्ति: इंद्रियों पर नियंत्रण करने वाला व्यक्ति हिंसक नहीं हो सकता है

भगवान श्रीराम ने अपने दिव्य मर्यादित चरित्र द्वारा ऐसी अनेक मर्यादाओं की स्थापना की जिसका परिणाम रामराज्य हो गया। वह चाहते तो अपने से पूर्व राजाओं की आलोचना कर अपनी सुस्थापना कर सकते थे। श्रीराम उन राजाओं में नहीं थे ना हैं जो मन या इंद्रियों से किसी दूसरे के नियंत्रण में चलें। श्रीराम के अंदर न तो कोई जातीय भेदभाव था ना ही वर्गीय भेद।

By Jagran News Edited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 15 Sep 2024 04:05 PM (IST)
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नवधा भक्ति: वाणी का संयम वास्तविक अहिंसा है

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। वाणी का संयम वास्तविक अहिंसा है। जिसमें यह विवेक नहीं है, वह अपनी असंतुलित और अमर्यादित वाणी द्वारा नित्य हिंसा कर रहा है। भगवान श्रीराम का भक्त कभी वाणी का असंतुलन नहीं करता है। वाणी की हिंसा तमोगुण की प्रवृत्ति अज्ञान के कारण ही होती है। भगवान का भक्त रजोगुण की प्रवृत्ति से कर्म करता है और कभी अविवेकी नहीं होता। इंद्रियां विवेक से नियंत्रित हों तो सभी मनुष्यों के जीवन में आनंद और निर्भयता आ जाएगी। आवश्यक है कि हम एक-दूसरे के सम्मान और परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील हों।

छठ दमसील बिरत बहु करमा।

निरत निरंतर सज्जन धरमा।।

श्रीराम का शबरी को छठी भक्ति का सार्वभौम उपदेश है कि उनके भक्त को अपनी इंद्रियों का दमन करना चाहिए। हमें स्वधर्म का पालन न करके अन्य कार्यों में अपनी बुद्धि और शक्ति व्यय कर स्वयं को अल्पज्ञ सिद्ध नहीं करना है। स्थिरता और धैर्य ही लक्ष्य प्राप्ति के आधार हैं। अनावश्यक कार्यों में लिप्त अत्यधिक महत्वाकांक्षा वाला व्यक्ति धीरे-धीरे मानसिक रोग से ग्रस्त हो जाता है तथा हर जगह अपनी प्रशंसा सुनने की अपेक्षा करने लगता है। परिणाम यह होता है कि समाज में लोग उसे भटका हुआ प्राणी मानने लगते हैं।

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विडंबना यह है कि उसे लगता है कि मेरे अतिरिक्त सभी लोग नासमझ हैं और उन्हें मेरे बताए मार्ग पर चलना चाहिए। जबकि हमें निष्ठा के साथ शास्त्र तथा वेदसम्मत मार्ग पर चलकर उन महापुरुषों के जीवन का अनुसरण करना चाहिए, जिन्होंने व्यवहार और परमार्थ के मध्य अपने मन और इंद्रियों के संतुलन द्वारा परम पद प्राप्त कर लिया है। इंद्रिय दमन के साथ इस प्रसंग में 'शील' को भी जोड़ दिया गया, इसका तात्पर्य है कि जिसने इंद्रिय दमन को बुद्धि से स्वीकार न कर हृदय से स्वीकार किया है और इसमें उसे अपार सुख का अनुभव हो रहा है, वास्तव में ऐसा साधक इंद्रियों को दबाता नहीं है, अपितु इंद्रियों का सुसंचालन करता है।

क्योंकि शास्त्र सम्मत, वेद सम्मत, न्याय संगत जीवनशैली को तो हर काल, देश में मान्यता प्राप्त है। इंद्रियों पर नियंत्रण करने वाला व्यक्ति हिंसक नहीं हो सकता है। वाणी ज्ञानेंद्रिय भी है और कर्मेन्द्रिय भी। जब हम बोलते हैं तो हमारी जीभ कर्मेंद्रिय होती है। जब वह खट्टे-मीठे आदि स्वाद का भेद करती है तो वही जिह्वा ज्ञानेंद्रिय भी हो जाती है। न तो व्यक्ति बोले बिना रह सकता है, ना ही भोजन बिना। अत: न तो बोलते रहना इंद्रियों का उपयोग है और ना ही पूरे समय भोजन करते रहना इंद्रियों की सार्थकता है। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति अथवा अन्य जीव के प्राण ले लेता है तो उसे हम हिंसक कहते हैं, लेकिन हिंसा के अनेक प्रकार होते हैं।

आज समाज के शिक्षित और विशिष्ट लोग वाणी से हिंसा करने को अपनी योग्यता मानने लगे हैं। इस हिंसा से वे अपना विवेक खो बैठते हैं। वाणी से हिंसा करने वाला व्यक्ति कभी शांत, सुखी तथा आनंदित नहीं रह सकता। हिंसक का जिसके प्रति पक्षपात होता है, वह उसके पाप को भी छिपाता या अनदेखा करता है और मानसिक विकृति के कारण श्रेष्ठ कार्यों में भी दोष ही देख निंदा करता है। वह राग-द्वेष का ऐसा चश्मा पहन लेता है कि निंदा-स्तुति के अर्थ और तात्पर्य नहीं समझ पाता। वह अपने क्षणिक और तात्कालिक गुणों को सर्वश्रेष्ठ मानकर अपनी झूठी प्रशंसा स्वयं करता रहता है और दूसरों की आलोचना कर सभ्य समाज में हंसी या हीनता का पात्र बन जाता है।

भगवान श्रीराम ने अपने दिव्य मर्यादित चरित्र द्वारा ऐसी अनेक मर्यादाओं की स्थापना की, जिसका परिणाम रामराज्य हो गया। वह चाहते तो अपने से पूर्व राजाओं की आलोचना कर अपनी सुस्थापना कर सकते थे। श्रीराम उन राजाओं में नहीं थे, ना हैं, जो मन या इंद्रियों से किसी दूसरे के नियंत्रण में चलें। श्रीराम के अंदर न तो कोई जातीय भेदभाव था, ना ही वर्गीय भेद, ना ही धन-वैभव के आधार पर वह किसी को नीचा या ऊंचा सिद्ध करते थे। श्रीरामचरितमानस में उनके मुख से निकला ऐसा एक भी वाक्य नहीं है, जिससे किसी का हृदय विदीर्ण हो गया हो। जैसा इंद्रिय दमन भगवान का है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता।

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जनकपुर में लक्ष्मण का मन रखने के लिए वह नगर दर्शन को जाते हैं, धनुष यज्ञ में सीता जी के नेत्रों में आंसुओं को देखकर धनुष तोड़ते हैं, कैकेयी जी की इच्छा के लिए वन स्वीकार कर लेते हैं, विभीषण के भाव की रक्षा और उनमें आत्मविश्वास भरने के लिए अपने अवतार का कारण विभीषण की भावना की रक्षा बता देते हैं। जांबवान जी पर अनंत विश्वास करते हैं, भरत के बनाए आभूषण केवट को पहनाकर कहते हैं कि तुम मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हो। जिस वृक्ष पर बंदर पूंछ लटकाकर बैठे हैं, उस वृक्ष की छाया में बैठकर वे अपने आप को बड़भागी मानते हैं। भगवान राम ने नवधा भक्ति का उपयोग अपने जीवन में स्वयं किया। वे इतने शीलवान हैं कि शबर जाति में जन्मी शबरी से कहते हैं कि मां, तुममें तो नौ की नौ सभी भक्ति साकार हो रही हैं। श्रीरामचरित जैसा मन और इंद्रियों का शमन और दमन आदर्श है। उसी को आचरण में लाने पर सब सुखी हो सकते हैं।