Swami Vivekananda: कर्मों से उपार्जित सुख, जानिए स्वामी विवेकानंद के अमूल्य विचार
चिंतन धरोहर स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने जीवन काल में कई लोगों को सही मार्ग लाने का कार्य किया था। उनके द्वारा दी गई शिक्षा का वर्तमान समय भी लोग पालन करते हैं और अपने जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं।
By Jagran NewsEdited By: Shantanoo MishraUpdated: Sat, 24 Dec 2022 05:31 PM (IST)
नई दिल्ली, स्वामी विवेकानंद | Swami Vivekananda about happiness: संसार के सारे क्रियाकलाप, मानव-समाज में हो रही गति, यह सब केवल मन का ही खेल है। मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रकाश मात्र है। अनेक प्रकार के यंत्र, युद्धपोत आदि सभी मनुष्य की इच्छा शक्ति के विकास मात्र हैं। मनुष्य की यह इच्छाशक्ति चरित्र से उत्पन्न होती है और वह चरित्र कर्मों से गठित होता है। अतएव कर्म जैसा होगा, इच्छाशक्ति का विकास भी वैसा ही होगा। संसार में प्रबल इच्छा शक्ति संपन्न जितने महापुरुष हुए हैं, वे सभी उत्कृष्ट कर्मी थे। उनकी इच्छाशक्ति ऐसी थी कि वे संसार को भी उलट-पुलट कर सकते थे। यह शक्ति उन्हें युग-युगांतर तक निरंतर कर्म करते रहने से प्राप्त हुई थी।
बुद्ध एवं ईसा मसीह में जैसी प्रबल इच्छाशक्ति थी, वह एक जन्म में प्राप्त नहीं की जा सकती और उसे हम आनुवंशिक शक्तिसंचार भी नहीं कह सकते, क्योंकि हमें ज्ञात है कि उनके पिता कौन थे। हम नहीं कह सकते कि उनके पिता के मुंह से मनुष्य जाति की भलाई के लिए शायद कभी एक शब्द भी निकला हो। जोसेफ (ईसा मसीह के पिता) के समान तो असंख्य बढ़ई आज भी हैं, बुद्ध के पिता के सदृश लाखों छोटे-छोटे राजा हो चुके हैं। अत: यदि वह बात केवल आनुवंशिक शक्तिसंचार के कारण हुई हो, तो इसका स्पष्टीकरण कैसे कर सकते हैं कि इस छोटे से राजा को, जिसकी आज्ञा का पालन शायद उसके स्वयं के नौकर भी नहीं करते थे। ऐसा एक सुंदर पुत्र-रत्न लाभ हुआ, जिसकी उपासना लगभग आधा संसार करता है?
इसी प्रकार जोसेफ नामक काष्ठशिल्पी तथा संसार में लाखों लोगों द्वारा ईश्वर के समान पूजे जाने वाले उसके पुत्र ईसा मसीह के बीच जो अंतर है, उसका स्पष्टीकरण कहां? आनुवंशिक शक्तिसंचार के सिद्धांत द्वारा तो इसका स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। बुद्ध और ईसा इस विश्व में जिस महाशक्ति का संचार कर गए, वह आई कहां से? उसका उद्भव कहां से हुआ? अवश्य युग-युगांतरों से वह उस स्थान में ही रही होगी और क्रमश: प्रबलतर होते-होते अंत में बुद्ध तथा ईसा मसीह के रूप में समाज में प्रकट हो गई और आज तक चली आ रही है। यह सब कर्म द्वारा ही नियमित होता है। यह सनातन नियम है कि जब तक कोई मनुष्य किसी वस्तु का उपार्जन न करे, तब तक वह उसे प्राप्त नहीं हो सकती।
संभव है, कभी-कभी हम इस बात को न मानें, परंतु आगे चलकर हमें इसका दृढ़ विश्वास हो जाता है। एक मनुष्य चाहे समस्त जीवन भर धनी होने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करता रहे, हजारों मनुष्यों को धोखा दे, परंतु अंत में वह देखता है कि वह संपत्तिशाली होने का अधिकारी नहीं था। तब जीवन उसके लिए दुखमय और दूभर हो उठता है। हम अपने भौतिक सुखों के लिए भिन्न-भिन्न चीजों को भले ही इकट्ठा करते जाएं, परंतु वास्तव में जिसका उपार्जन हम अपने कर्मों द्वारा करते हैं, वही हमारा होता है।