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Swami Vivekananda Thoughts: भक्त के लिए पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक है

Swami Vivekananda Thoughts एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालने पर जिस प्रकार एक अविच्छिन्न धारा में गिरता है उसी प्रकार जब मन भगवान के सतत चिंतन में लग जाता है तो पराभक्ति की अवस्था प्राप्त हो जाती है। भगवान के प्रति अविच्छिन्न आसक्ति के साथ हृदय और मन का इस प्रकार अविरत और नित्य स्थिर भाव ही मनुष्य के हृदय में भगवत्प्रेम का सर्वोच्च प्रकाश है।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 02 Oct 2023 11:50 AM (IST)
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Swami Vivekananda Thoughts: भक्त के लिए पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक है

स्वामी विवेकानंद। उपनिषदों में परा और अपरा विद्या में भेद बतलाया गया है। भक्त के लिए पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक ही है। मुंडक उपनिषद में कहा गया है - ब्रह्मज्ञानी के मतानुसार परा और अपरा, ये दो प्रकार की विद्याएं जानने योग्य हैं। अपरा विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा (उच्चारणादि की विद्या), कल्प (यज्ञपद्धति), व्याकरण, निरुक्त (वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति और अर्थ बताने वाला शास्त्र), छंद और ज्योतिष आदि हैं तथा परा विद्या द्वारा उस अक्षर ब्रह्म का ज्ञान होता है। इस प्रकार परा विद्या स्पष्टत: ब्रह्मविद्या है।

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देवीभागवत में पराभक्ति की यह व्याख्या है कि-एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालने पर जिस प्रकार एक अविच्छिन्न धारा में गिरता है, उसी प्रकार जब मन भगवान के सतत चिंतन में लग जाता है तो पराभक्ति की अवस्था प्राप्त हो जाती है। भगवान के प्रति अविच्छिन्न आसक्ति के साथ हृदय और मन का इस प्रकार अविरत और नित्य स्थिर भाव ही मनुष्य के हृदय में भगवत्प्रेम का सर्वोच्च प्रकाश है। अन्य सब प्रकार की भक्ति इस पराभक्ति अर्थात रागानुगा भक्ति की प्राप्ति के लिए केवल सोपान स्वरूप है।

जब इस प्रकार का अपार अनुराग मनुष्य के हृदय में उत्पन्न हो जाता है, तो उसका मन निरंतर भगवान के स्मरण में ही लगा रहता है, उसे और किसी का ध्यान ही नहीं आता। भगवान के अतिरिक्त वह अपने मन में अन्य विचारों का स्थान तक नहीं देता और फलस्वरूप उसकी आत्मा पवित्रता के अभेद्य कवच से रक्षित हो जाती है। वह तामसिक एवं भौतिक समस्त बंधनों को तोड़कर शांत और मुक्त भाव धारण कर लेती है। ऐसा ही व्यक्ति अपने हृदय में भगवान की उपासना कर सकता है। उसके लिए अनुष्ठान पद्धति, प्रतिमा, शास्त्र और मत-मतांतर आदि अनावश्यक हो जाते हैं, उनके द्वारा उसे कोई लाभ नहीं होता।

भगवान की इस प्रकार की उपासना करना सहज नहीं है। साधारणतया मानवी प्रेम वहीं लहलहाते देखा जाता है, जहां उसे दूसरी ओर से बदले में प्रेम मिलता है और जहां ऐसा नहीं होता, वहां उदासीनता आकर अपना अधिकार जमा लेती है। ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, जहां बदले में प्रेम न मिलते हुए भी प्रेम का प्रकाश होता हो। उदाहरणार्थ हम दीपक के प्रति पंतगे के प्रेम को ले सकते हैं।

पतंगा दीपक से प्रेम करता है और उसमें गिरकर अपने प्राण दे देता है। इस प्रकार प्रेम करना उसका स्वभाव है। केवल प्रेम के लिए प्रेम करना संसार में निस्संदेह प्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है और यही पूर्ण निस्वार्थ प्रेम है। इस प्रकार का प्रेम जब आध्यात्मिकता के क्षेत्र में कार्य करने लगता है, तो वहीं हमें पराभक्ति में ले जाता है।