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जीवन दर्शन: मनुष्य इंद्रिय विषयों में तीव्र आनंद अनुभव करता है

मनुष्य इंद्रिय विषयों में तीव्र आनंद अनुभव करता है। इंद्रियों को अच्छी लगने वाली चीजों के लिए वह भटकता फिरता है और बड़ा से बड़ा जोखिम उठाने के लिए तैयार रहता है। भक्त को चाहिए कि वह भगवान के प्रति इसी प्रकार का तीव्र प्रेम रखे। इसके उपरांत आता है विरह। विरह प्रेमास्पद के अभाव में उत्पन्न होने वाला तीव्र दुख।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 29 Oct 2023 12:39 PM (IST)
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जीवन दर्शन: मनुष्य इंद्रिय विषयों में तीव्र आनंद अनुभव करता है

स्वामी विवेकानंद। भक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती है। पहला है श्रद्धा। लोग मंदिरों और पवित्र स्थानों के प्रति श्रद्धा इसलिए प्रकट करते हैं, क्योंकि वहां भगवान की पूजा होती है, ऐसे स्थानों में उनकी सत्ता अधिक अनुभूति होती है। प्रत्येक देश में लोग धर्माचार्यों के प्रति श्रद्धा इसलिए प्रकट करते हैं, क्योंकि ये आचार्य उन्हीं भगवान की महिमा का उपदेश देते हैं। इस श्रद्धा का मूल है प्रेम। हम जिससे प्रेम नहीं करते, उसके प्रति कभी श्रद्धालु नहीं हो सकते। इसके बाद है प्रीति अर्थात ईश्वर चिंतन में आनंद।

मनुष्य इंद्रिय विषयों में तीव्र आनंद अनुभव करता है। इंद्रियों को अच्छी लगने वाली चीजों के लिए वह भटकता फिरता है और बड़ा से बड़ा जोखिम उठाने के लिए तैयार रहता है। भक्त को चाहिए कि वह भगवान के प्रति इसी प्रकार का तीव्र प्रेम रखे। इसके उपरांत आता है विरह। विरह प्रेमास्पद के अभाव में उत्पन्न होने वाला तीव्र दुख। यह दुख संसार के समस्त दुखों में सबसे मधुर है। जब मनुष्य भगवान को न पा सकने के कारण, संसार में एकमात्र जानने योग वस्तु को न जान सकने के कारण तीव्र वेदना अनुभव करने लगता है और अत्यंत व्याकुल हो पागल-सा हो जाता है, उस दशा को विरह कहते हैं।

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मन की ऐसी दशा में प्रेमास्पद को छोड़ उसे और कुछ अच्छा नहीं लगता। बहुधा यह विरह सांसारिक प्रणय में देखा जाता है। जब पराभक्ति हृदय पर अपना प्रभाव जमा लेती है तो अन्य अप्रिय विषयों की उपस्थिति हमें खटकने लगती है, यहां तक कि प्रेमास्पद भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी विषय पर बातचीत तक कहना हमारे लिए अरुचिकर हो जाता है। केवल उन पर ध्यान करो और अन्य सब बातें त्याग दो (मुंडकोपनिषद)। जो लोग केवल उन्हीं की चर्चा करते हैं, वे भक्त को मित्र समान प्रतीत होते हैं और जो अन्य लोग अन्य विषयों की चर्चा करते हैं, वे उनको शत्रु समान दिखते हैं।

प्रेम की इससे भी उच्च अवस्था तो वह है, जब उन प्रेमास्पद भगवान के लिए ही जीवन धारण किया जाता है, जब उन प्रेमस्वरूप के निमित्त ही प्राण धारण करना सुंदर और सार्थक समझा जाता है। ऐसे प्रेमी के लिए उन परम प्रेमास्पद भगवान बिना एक क्षण भी रहना असंभव हो उठता है। उन प्रियतम का चिंतन हृदय में सदैव बने रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है। शास्त्रों ने इसी अवस्था को तदर्थ प्राण संस्थान कहा है। तदीयता तब आती है, जब साधक भक्ति मत के अनुसार पूर्ण अवस्था को प्राप्त हो जाता है। जब वह श्री भगवान के चरणारविंद का स्पर्श कर धन्य और कृतार्थ हो जाता है। तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है। संपूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। तब उसके जीवन की सारी साध पूरी हो जाती है।

फिर भी, इस प्रकार के बहुत से भक्त बस उनकी उपासना के निमित्त ही जीवन धारण किए रहते हैं। इस दुखमय जीवन में यही एकमात्र सुख है और वे इसे छोड़ना नहीं चाहते। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि हरि के ऐसे मनोहर गुण हैं कि जो लोग उनको प्राप्त कर संसार की सारी वस्तुओं से तृप्त हो गए हैं, जिनके हृदय की सब ग्रंथियां खुल गई हैं, वे भी भगवान की निष्काम भक्ति करते हैं। जब मनुष्य अपने आपको बिल्कुल भूल जाता है और जब उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज अपनी है, तभी उसे यह तदीयता की अवस्था प्राप्त होती है। तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है, क्योंकि वह सब उसके प्रेमास्पद का ही तो है। यह संसार अंतत: उन्हीं का तो है।