Navadha Bhakti: श्रीराम कथा के पाठ से साधक के संस्कार होते हैं जाग्रत, जानें सातवीं भक्ति की विशेषता
श्रीराम भक्तिमती शबरी से कहते हैं कि मेरा भक्त सारे संसार में मुझे ही देखता है पर संत को मुझसे भी मान्यता देता है। क्या है संत की विशेषता? संत के संग से सत्संग और कथा के माध्यम से भक्ति के संस्कार जाग्रत होते हैं। भक्ति मार्ग के परमाचार्य श्रीनारद जी के सत्संग से रुक्मिणी जी गणेश जी ध्रुव जी प्रह्लाद जी तथा अनगिनत लोगों को भगवान की प्राप्ति हुई।
स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। भगवान श्रीराम द्वारा भक्त शबरी को दिए गए नवधा भक्ति के उपदेश में सातवीं भक्ति का लक्षण यह बताया गया कि इसमें भक्त भगवान से अधिक संत को महत्व देता है। क्योंकि उसे पता होता है कि संत से मिलन बिना हरि कृपा के संभव नहीं। इस बार प्रस्तुत है सातवीं भक्ति की विशेषता...
सातवं सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।
भगवान श्रीराम भक्तिमती शबरी से कहते हैं कि मेरा भक्त सारे संसार में मुझे ही देखता है, पर संत को मुझसे भी अधिक मान्यता देता है। क्या है संत की विशेषता? संत के संग से सत्संग और कथा के माध्यम से भक्ति के संस्कार जाग्रत होते हैं। भक्ति मार्ग के परमाचार्य श्रीनारद जी के सत्संग से रुक्मिणी जी, गणेश जी, ध्रुव जी, प्रह्लाद जी तथा अनगिनत लोगों को भगवान की प्राप्ति हुई। इन सब में भक्ति को अंकुरित करने का महान कार्य नारद जी ने किया। नारद जी द्वारा ही कंस के वध की भी भूमिका बनाई गई। सद् का वरण करना और असद् का त्याग करना ही भक्ति की भावभूमि है, जिसको आधार बनाकर भक्त अपने परम प्रियतम प्रभु से संबंध की स्थापना करता है। समल और निर्मल दोनों प्रकार के वैराग्यों की सहज उपलब्धि भक्त को सहज हो जाती है।
भगवान ने संत की उपलब्धि को क्यों बताया श्रेष्ठ?
प्रतिकूल और अनुकूल दोनों प्रकार की बाधाओं से विभक्त करके स्वयं को भक्त भगवान में अनुरक्त कर लेता है। भगवान ने इसलिए अपने परमाश्रय भक्तों और भक्तों के परमाश्रय स्वयं को जोड़े रहने के लिए संत की उपलब्धि को अपने से भी श्रेष्ठ बतलाया। समल वैराग्य का होना तो साधना और उपदेश से संभव है, पर अमल का परित्याग करके सारे रसों का मकरंद भगवान के श्री चरणों में मिलने लगे तथा दूसरे किसी विषय को प्राप्त करने की इच्छा ही न हो, नारद जी भक्त के अंत:करण में उस बीज का अंकुरण कर देते हैं।
वस्तुतः नारद जी भगवान की पूर्व संकल्पित लीलाओं के क्रियान्वयन की पृष्ठभूमि तैयार करने का कार्य करते हैं। उनका अपना निजी कोई संकल्प नहीं है। वे तो केवल भगवान की कृपा, करुणा, शरणागत्वत्सलता के प्रति भक्तों में जागरण करते रहते हैं। संसार के लोगों में विश्वास पैदा करते रहते हैं। संत दूसरों के प्रति उपकार को ही अपनी साधना मानते हैं। वे सहज स्वभाव के होते हैं, भक्ति उनका सहज स्वरूप होता है। जिसके हृदय में भगवद्भक्ति नहीं है, ऐसा प्राणी जीवित रहते हुए पशु के समान है। काकभुशुण्डि जी उत्तरकांड के उत्तरार्ध में कहते हैं, दरिद्रता से बढ़कर कोई दुख नहीं है और संत मिलन से अधिक बड़ा कोई सुख नहीं है।
श्रीरामचरितमानस में संत मिलन को सुख बताने का तात्पर्य यह है कि जो प्राप्त है, उसमें सुख लेना और उसका उपयोग करना केवल संत ही बताते हैं। ईश्वर और संत वर्तमान ही हैं, वे भूत और भविष्य पर आधारित नहीं हैं :
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसासेवत सादर समन कलेसा।।
शबरी जी को भगवान की सहज उपलब्धि संत सेवा के फलस्वरूप ही हुई। भक्ति किसी से सीखी नहीं जाती है, वह सहज रूप से जीवन में प्रवेश कर जाती है। वह रक्त की तरह शरीर में सहज व्याप्त होती है।
कैकेयी श्रीभरत को श्रीराम से नहीं कर सकीं अलग
यह तो जन्मजात होती है, संस्कार में होती है। प्रहलाद, ध्रुव, काकभुशुंडी, श्रीभरत, श्रीलक्ष्मण, श्री शत्रुघ्न, नारद जी, सनक, सनंदन, सनातन, सनत कुमार, गोपियां, ग्वाल, रुक्मिणि जी सबके लिए भक्ति उनका जीवन था। भक्ति तो भक्त का स्व-स्वरूप है। जिसको माया कभी विभक्त न कर सके, वह भक्त है। जिसको अपने और पराये संबंध भी भगवान से अलग न कर सकें, वह भक्त है। विभीषण को रावण राम से अलग नहीं कर सका। हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को नारायण से विभक्त नहीं कर सका। कैकेयी श्रीभरत को श्रीराम से अलग नहीं कर सकीं, जबकि ये सब सांसारिक दृष्टि से सगे संबंधी थे। भक्ति जब हृदय में होती है तो भक्त अपने भगवान को ऐसे पहचान लेते हैं, जैसे हनुमान जी ने भगवान श्रीराम को दुखी और अभावग्रस्त रूप में भी पहचान लिया। उसी तरह विभीषण ने हनुमान जी को पहचान लिया। विभीषण जी हनुमान जी से कहते हैं कि : की तुम हरि दासन्ह महं कोई। मोरे हृदय प्रीति अति होई।।की तुम्ह राम दीन अनुरागी।आयहु मोहिं करन बड़भागी।।अब मोहि भा भरोस हनुमंता।बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता।। संत का मिल जाना भगवान का ही मिलना होता है, संत और गुरु के माध्यम से जब भगवान हमें प्राप्त होते हैं तो भगवान हृदय और जीवन में स्थापित हो जाते हैं। विनय पत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं : कबहुंक हौं यहि रहनि रहौंगो। श्री रघुनाथ-कृपाल-कृपा तें संत सुभाव गहौंगो।जथालाभ संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।परहित निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो।परुष बचन अति दुसह स्रवन, सुनि तेहि पावक न दहौंगो।बिगत मान सम सीतल मन, पर-गुन, नहिं दोष कहौंगो।परिहरि देहजनित चिंता दुख सुख समबुद्धि सहौंगो।तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरिभक्ति लहौंगो।किसी से कोई याचना न करना ही संत के हैं लक्षण
गोस्वामी जी भगवान से पहली याचना करते हैं कि प्रभु! जहां जितना लाभ हो जाए, उसी में मुझे संतोष हो जाए। भगवान के अतिरिक्त संसार में किसी से कोई याचना न करना ही संत के लक्षण हैं। दूसरी याचना करते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति यदि कटु शब्द बोल दे तो वे उस शब्द की अग्नि में जलकर भस्म नहीं होना चाहते हैं। संत कभी भी किसी के दोषों की चर्चा न करके सर्वदा गुणों का ही विस्तार करता है। भगवान संत को अपनी अविरल भक्ति देकर धन्य कर देते हैं।