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Swami Vivekananda: चरित्र गठन की व्यायामशाला है संसार

Swami Vivekananda यह सोचना भूल है कि हमने संसार का भला किया। इस विचार से दुख उत्पन्न होता है। हम किसी की सहायता करने के बाद सोचते हैं कि वह हमें इसके बदले में धन्यवाद दे पर वह धन्यवाद नहीं देता तो हमें दुख होता है। हम जो कुछ भी करें उसके बदले में किसी चीज की आशा क्यों रखें?

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 03 Jul 2023 02:34 PM (IST)
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Swami Vivekananda: चरित्र गठन की व्यायामशाला है संसार
स्वामी विवेकानंद | संसार न तो अच्छा है, ना बुरा। प्रत्येक मनुष्य अपने लिए अपना-अपना संसार बना लेता है। हमारी मानसिक अवस्था के अनुसार ही हमें यह संसार भला या बुरा प्रतीत होता है। अग्नि स्वयं में अच्छी है न बुरी। जब यह हमें गर्म रखती है, तो हम कहते हैं यह कितनी अच्छी है, जब हमारी अंगुली जल जाती है, तो हम इसे दोष देते हैं। यही हाल संसार का है। संसार स्वयं पूर्ण है। पूर्ण का अर्थ यह है कि इसमें अपने सभी प्रयोजन पूर्ण करने की क्षमता है। हमें जान लेना चाहिए कि हमारे बिना भी यह संसार बड़े मजे से चलता जाएगा। हमें उसकी सहायता करने के लिए माथापच्ची करने की आवश्यकता नहीं। परंतु फिर भी हमें सदैव परोपकार करते ही रहना चाहिए।

यदि हम सदैव यह ध्यान रखें कि दूसरों की सहायता करना एक सौभाग्य है, तो परोपकार करने की इच्छा एक सर्वोत्तम प्रेरणा शक्ति है। एक दाता के ऊंचे आसन पर खड़े होकर अपने हाथ में दो पैसे लेकर यह मत कहो, 'ऐ भिखारी, ले, मैं तुझे यह देता हूं।' तुम स्वयं इस बात के लिए कृतज्ञ होओ कि इस संसार में तुम्हें अपनी दयालुता का प्रयोग करने और इस प्रकार पूर्ण होने का अवसर प्राप्त हुआ। धन्य पाने वाला नहीं, देने वाला होता है। भलाई के सभी कार्य हमें शुद्ध और पूर्ण बनाने में सहायता करते हैं। यह संसार न तो तुम्हारी सहायता का भूखा है और ना मेरी। परंतु फिर भी हमें निरंतर कार्य करते रहना चाहिए, परोपकार करते रहना चाहिए। क्योंकि इससे हमारा ही भला है। यही एक साधन है, जिससे हम पूर्ण बन सकते हैं। यदि हमने किसी गरीब को कुछ दिया, तो वास्तव में हम पर उसका आभार है, क्योंकि उसने हमें इस बात का अवसर दिया कि हम अपनी दया की भावना उस पर काम में ला सकें।

यह सोचना भूल है कि हमने संसार का भला किया। इस विचार से दुख उत्पन्न होता है। हम किसी की सहायता करने के बाद सोचते हैं कि वह हमें इसके बदले में धन्यवाद दे, पर वह धन्यवाद नहीं देता, तो हमें दुख होता है। हम जो कुछ भी करें, उसके बदले में किसी चीज की आशा क्यों रखें? बल्कि उल्टे हमें उसी के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, जिसकी हम सहायता करते हैं, उसे साक्षात नारायण मानना चाहिए। मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की उपासना करना क्या हमारा परम सौभाग्य नहीं है? यदि हम वास्तव में अनासक्त हैं, तो हमें यह प्रत्याशा जनक कष्ट क्यों होना चाहिए? अनासक्त होने पर तो हम प्रसन्नतापूर्वक संसार में भलाई कर सकते हैं।

अनासक्त किए हुए कार्य से कभी भी दुख अथवा अशांति नहीं आएगी। यदि हम यह जान लें कि आसक्ति रहित होकर किस तरह कर्म करना चाहिए, तभी हम दुराग्रह और मतांधता से परे हो सकते हैं। जब तुम दुराग्रह और मतांधता से परे हो जाओगे, तभी अच्छी तरह कार्य कर सकोगे। जो ठंडे मस्तिष्क वाला और शांत है, जो उत्तम ढंग से विचार करके कार्य करता है, जिसके स्नायु सहज ही उत्तेजित नहीं होते तथा जो अत्यंत प्रेम और सहानुभूति संपन्न है, केवल वही व्यक्ति संसार में परोपकार कर सकता है और इस तरह वह अपना भी कल्याण कर सकता है। यह संसार चरित्र गठन की एक विशाल व्यायामशाला है। इसमें हम सभी को अभ्यास रूप में कसरत करनी पड़ती है, जिससे हम आध्यात्मिक बल से अधिकाधिक बलवान बनते रहें। हम में किसी भी प्रकार का दुराग्रह नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुराग्रह प्रेम का विरोधी है। हम जितने ही शांतचित्त होंगे और हमारे स्नायु जितने शांत रहेंगे, हम उतने ही अधिक प्रेम संपन्न होंगे और हमारा कार्य भी उतना ही अधिक श्रेष्ठ होगा।