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Vijayadashami 2023: राम एक वैचारिक और चारित्रिक क्रांति हैं, जो निर्विकार की स्थापना करते हैं

लंका में रावण और मेघनाद दो ऐसे पात्र हैं जिनको राम में कोई गुण दिखाई नहीं देता है। वहीं पर रावण की पत्नी मंदोदरी और मेघनाथ की पत्नी सुलोचना को राम में कोई दोष नहीं दिखाई देता है। मंदोदरी ने रावण के समक्ष भगवान के विराट रूप का वर्णन करते हुए कहा कि तुम में और राम में केवल एक ही अंतर है-तुम जुगनू हो और राम सूर्य हैं।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 22 Oct 2023 12:52 PM (IST)
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Vijayadashami 2023: राम एक वैचारिक और चारित्रिक क्रांति हैं, जो निर्विकार की स्थापना करते हैं

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन): विजय के साथ निरहंकारिता और विभूति के साथ अहं शून्यता तो केवल श्रीराम की कृपा या श्रीराम के लिए ही संभव है। लंका में रावण और मेघनाद दो ऐसे पात्र हैं, जिनको राम में कोई गुण दिखाई नहीं देता है। वहीं पर रावण की पत्नी मंदोदरी और मेघनाथ की पत्नी सुलोचना को राम में कोई दोष नहीं दिखाई देता है। मंदोदरी ने रावण के समक्ष भगवान के विराट रूप का वर्णन करते हुए कहा कि तुम में और राम में केवल एक ही अंतर है कि तुम जुगनू हो और राम सूर्य हैं। तुम जिन राम से विरोध कर रहे हो, उनका अहं शिव, बुद्धि ब्रह्मा, मन चंद्रमा और चित्त विष्णु हैं:

अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।

मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान।।

इसको सुनकर रावण हंस कर मंदोदरी से कहता है कि तुम्हारी बुद्धि मोहग्रस्त हो गई है। मोह की यही प्रबलता होती है कि जब व्यक्ति जानते हुए भी अनजाने जैसा व्यवहार करता है। अभी भी संसार में न जाने कितने जुगनू ऐसे हैं, जो अपने को सूर्य समझकर पतंगों की तरह श्रीराम की क्रोधाग्नि में जलकर मरने की तैयारी में हैं। जब अपने ही निकट की बात सुनाई न दें और अपने निकट का दिखाई न दें, तो समझ लेना चाहिए कि हममें रावणत्व आ गया है। भगवान राम ने धर्म रथ पर बैठकर युद्ध किया:

सौरज धीरज तेहि रथ चाका।

सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।

बल बिबेक दम परहित घोरे।

छमा कृपा समता रजु जोरे ।

ईस भजन सारथी सुजाना।

बिरति चर्म संतोष कृपाना।।

विभीषण ने भगवान के प्रति अत्यधिक प्रेम के कारण पूछा, प्रभु आप लंकाधिपति रावण पर कैसे विजय प्राप्त करेंगे? आपके पास धनुष-बाण के अतिरिक्त युद्ध में जीतने का कोई साधन भी नहीं है। तब श्रीराम ने विभीषण को एक आंतरिक धर्म का उपदेश किया जिसकी आवश्यकता हर उस व्यक्ति को है, जो संसार में बुराइयों पर विजय प्राप्त करने की इच्छा रखता है। भगवान श्रीराम ने जिस धर्म के रथ पर बैठकर रावण पर विजय प्राप्त की थी, वह रथ बाहर दिखाई नहीं देता है, पर संसार में वास्तविक विजय उसी की होती है, जिसके जीवन में यह धर्मरथ होता है।

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श्रीराम ने विभीषण को धर्म रथ का उपदेश देते हुए कहा, विभीषण! जीवन के इस महासंग्राम में विजय प्राप्ति के लिए जिन संसाधनों की आवश्यकता है, उसमें पहले एक रथ चाहिए। उस धर्म रथ में शौर्य और धैर्य के दो पहिए होते हैं। अधिकांश लोगों के जीवन में या तो शौर्य होता है, जो पराक्रम के बल पर बहुत कुछ कर दिखाते हैं या फिर ऐसा धैर्य होता है कि जीवन भर धैर्यपूर्वक विचार ही करते रहते हैं, किसी विचार को क्रियात्मक रूप नहीं दे पाते हैं।

भगवान श्रीराम में स्वयं और उनके परिकर के प्रत्येक पात्र के जीवन में संपूर्ण गुणों से युक्त वह पूर्ण धर्मरथ है, जिसके कारण श्रीराम की विजय हुई और रावण की पराजय। भौतिक दृष्टि से देखें तो रावण के पास युद्ध के जितने सुसज्जित और सुव्यवस्थित साधन थे, वे श्रीराम के पास नहीं थे, पर रावण यह नहीं जानता है कि गुण दिखाई देना महत्वपूर्ण नहीं होता है, अपितु गुणों का जीवन में ठीक जगह पर उपयोग होना आवश्यक होता है।

भगवान के धर्म रथ में एक पहिया शौर्य का है और दूसरा धैर्य का है। सत्य की ध्वजा के साथ उस रथ में दूसरे के भावों की रक्षा करने बाले शील गुण की पताका है, जो सत्य की ध्वजा से ऊपर होती है, क्योंकि सत्य में व्यक्ति को अपने धर्म की रक्षा करने की इच्छा होती है, पर शील में दूसरे के भाव और लक्ष्य को पूर्ण करने की प्रमुखता होती है।

रथ को गतिमान करने के लिए बल, विवेक, इंद्रिय दमन और परोपकार के चार घोड़े हों। उन घोड़ों को नियंत्रित करने के लिए क्षमा, कृपा और समता की वटी हुई रस्सी की लगाम होती है अर्थात क्षमा, कृपा और समता सबके लिए समान होना चाहिए। ऐसा नहीं कि जो हमारा है, उसके दोष भी गुण लगें और दूसरे के गुण भी दोष लगें।

विजय प्राप्ति के लिए ईश्वर उस रथ का चालक हो, हमारे गुणों का संचालन यदि कर्ण के सारथी शल्य की तरह होगा, तो हमारे धर्म रथ का एक पहिया धरती में धंस जाएगा और जिस अर्जुन के रथ का संचालन स्वयं भगवान कृष्ण कर रहे हैं और जिसके रथ की ध्वजा पर स्वयं हनुमान जी विराजमान हैं, उसी की विजय होगी। कर्ण और रावण दोनों में शौर्य पर्याप्त है, पर भगवान की बात सुनने का धैर्य नहीं है।

इसी कारण दोनों की मृत्यु में अविवेक की ही प्रधानता रही। समुद्र द्वारा भगवान श्रीराम को जब सरलता से मार्ग नहीं दिया गया, तो उन्होंने शौर्य मूलक वाक्य बोले। थोड़ा क्रोध भी किया, पर ज्यों ही समुद्र ने अपने द्वारा की गई प्रभु के प्रति अमर्यादा को स्वीकार कर लिया, त्यों ही भगवान ने धैर्यपूर्वक उससे अपनी ही सेना के सैनिक नल-नील की विशेषता जानकर समुद्र पर पुल बांध लिया और सारी सेना को पार करा दिया।

भगवान राम के धर्मरथ में बल, विवेक, इंद्रिय दमन और परोपकार के चार घोड़े हैं, जिनका संचालन स्वयं ईश्वर कर रहे हैं, क्योंकि साधक के गुणों की शक्ति का उपयोग यदि पाप को विजयी बनाने के लिए होगा, तो हमारे जीवन के गुण भी दोष का ही परिणाम देंगे। विकार रहित मन, स्थिर अचल मन ही वह तरकस है, जिसमें सम, जम, नियम के बाण सुरक्षित रहते हैं।

जब इन गुणों से युक्त कोई साधक होता है तो न तो मोह का रावण उसे नष्ट कर सकता है, ना ही कामरूप मेघनाद और ना ही अहंकार रूप कुंभकर्ण उस साधक का विनाश कर सकता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि :

समर विजय रघुवीर के चरित जे सुनहिं सुजान।

बिनय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान।।

भगवान राम ने युद्ध में भी जो दिव्य चरित्र किए, तुलसीदास जी कहते हैं कि उन्हें सुनकर साधकों के जीवन में ऐसा विवेक आ जाएगा, जिसमें विजय प्राप्ति के पश्चात अभिमान नहीं आएगा। धन, संपदा, ऐश्वर्य पाकर व्यक्ति उसको भगवान की कृपा के रूप में देखेगा और फिर श्रीराम की ही तरह लोक कल्याण के लिए उसको समर्पित कर देगा। इस मलिन कलिकाल में श्रीराम के चरित्र के अनुसरण के अतिरिक्त भव सागर से निर्लिप्त होकर तरने का और कोई मार्ग नहीं है। भगवान श्रीराम ने लंका विजय का श्रेय एक बार भी स्वयं को नहीं दिया। विजय के पश्चात अयोध्या में जाकर बंदरों से गुरुदेव वशिष्ठ जी का परिचय कराते हुए कहा कि :

गुरु वशिष्ठ कुल पूज्य हमारे।

इनकी कृपा दनुज रन मारे।

ये हमारे पूज्य गुरुदेव हैं, इन्हीं की कृपा से हमने सारे राक्षसों का वध किया। गुरुदेव को बंदरों का परिचय देते हैं कि :

ये सब सखा सुनहु मुनि मेरे।

भिरे समर सागर कहं बेरे।

मम हित लागि जनमु इन हारे।

भरतहुं ते मोहि अधिक पियारे।

लंका से जब विमान में बंदरों के साथ भगवान चले, तो भी बंदरों से कहा कि :

तुम्हरे बल मैं रावण मारयो।

तिलक विभीषण कहँ पुनि सारयो।।

भगवान की जीत के पश्चात प्रेमातुर होकर देवराज इंद्र के साथ महाराज दशरथ भी लंका के रणक्षेत्र में भगवान को अपना पुत्र मानकर बधाई देने आ गए। श्रीराम ने पहले तो पिता के रूप में उनके भाव की रक्षा करके उनको प्रणाम करके कहा कि पिताजी! आपके पुण्यों के प्रभाव से ही मैंने रावण पर विजय प्राप्त की :

तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ।

जीत्यों अजय निसाचर राऊ।।

अंत में उन्हें ज्ञान दृष्टि देकर अपने निज लोक में भेज दिया। भगवान श्रीराम ने पूरे लीला काल में प्रेम और मर्यादा का ऐसा अलौकिक दर्शन कराया कि वे एक बार भी असंतुलित या किसी के हृदय को कष्ट पहुंचे, ऐसा एक शब्द कभी नहीं बोले। संगीत में तीन प्रकार के स्वर होते हैं जो अलग-अलग रागों में प्रयुक्त होते हैं। शुद्ध स्वर, कोमल स्वर और तीव्र स्वर। शुद्ध स्वर सत्य प्रधान होते हैं, तीव्र स्वर अहं प्रधान होते हैं, कोमल स्वर शील प्रधान होते हैं। यही है जीवन का लोक और शास्त्रीय संगीत, जो आज लगभग हर घर में बेसुरा हो रहा है। लोग जिस राग में जो स्वर नहीं लगाना चाहिए, वह वर्जित स्वर लगाकर राग को बेसुरा कर देते हैं। परिणामस्वरूप परिवार में संगीत बिगड़ जाता है।

छोटा याद नहीं रख पाता कि हम छोटे हैं। बड़ा अपने बड़प्पन का परिचय न देकर अपने कर्तृत्त्व और आयु से बड़े होने को ही बड़ा मानता है। ये ही बेसुरे स्वर हैं। भगवान की पूरी रामलीला में एक बार भी वाणी दोष नहीं हुआ। भरत, लक्ष्मण, केवट, सुग्रीव, विभीषण को एक जैसा प्रेम देना। वनवास के रूप में अपने प्रति किए गए व्यवहार पर कोई प्रतिक्रिया न करना यह केवल श्रीराम के लिए ही संभव है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भगवान को कोमलता, सहृदयता और शरणागत वत्सलता को ही सबसे अधिक महत्व दिया है। श्रीराम ने न तो बालि का वध करके किष्किंधा में अपने भाई को गद्दी पर बैठाया और ना ही लंका में। राम एक वैचारिक और चारित्रिक क्रांति हैं, जो विकार को निकालकर निर्विकार की स्थापना करते हैं। श्रीराम को अयोध्या के राज्य मिलने की बात सुनकर प्रसन्नता नहीं हुई। राज्य के स्थान पर वन मिलने की बात पर मुख पर कोई आक्रोश या मलिनता नहीं आई। यही है समत्त्व में स्थिति।

श्रीराम तो जो करते हैं, वह सबके हित और कल्याण के लिए करते हैं। भगवान राम ने द्वेष के वश होकर रावण से युद्ध नहीं किया। अपितु उन्होंने द्वेष से निवृत्ति के लिए युद्ध किया। युद्ध ईश्वर का उद्देश्य होता भी नहीं है। राम रावण के युद्ध की फलश्रुति विजय, विवेक, और विभूति मिलना है, यह तो बिल्कुल अद्भुत है। विजय के साथ निरहंकारिता, विभूति के साथ अहं शून्यता तो केवल श्रीराम की कृपा या श्रीराम के लिए ही संभव है।