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Vivah Panchami 2023: मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम पुरुषार्थ के मोक्ष फल हैं

भगवान श्रीराम के जन्म से लेकर संपूर्ण लीला में गुरुओं ऋषियों और मुनियों का बड़ा योगदान है। भगवान के विवाह ने अयोध्या और जनकपुर को जोड़ा वशिष्ठ तथा विश्वामित्र का मिलना तो संसार का बड़ा चमत्कार है कि राम के लिए दोनों गुरु अपने आपसी राग-द्वेष को भूल गए और श्रीराम के अवतार की संपूर्णता में अपनी योग्यता और ज्ञान को कर्म के सुरवे में रखकर आहुति दे देते हैं।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 10 Dec 2023 12:51 PM (IST)
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Vivah Panchami 2023: मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम पुरुषार्थ के मोक्ष फल हैं
स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन): संसार में सुख का विस्तार ही राम विवाह का उद्देश्य है। सारे पुरवासी भगवान को दूल्हा रूप में देखकर अत्यंत उत्साह में भरे हुए हैं। जनकपुर से लौटते समय मार्ग में जहां-जहां से बारात निकली, वहां के सब लोग आनंद में भरे हुए मंगलाचार कर रहे हैं :

श्री रघुवीर विवाह जे

सप्रेम गावहिं सुनहिं!!

बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।

अवध समीप पुनीत दिन पहुंची आइ जनेत।।

श्रीसीताराम विवाह में इसका अभिनव दर्शन मिलता है। भगवान राम, सीता जी के साथ, श्रीभरत मांडवी जी के साथ, श्रीलक्ष्मण उर्मिला जी के साथ और श्रीशत्रुघ्न जी श्रुतिकीर्ति जी के साथ जब विवाह करके अयोध्या पधारे, तब अपने बालकों को देखकर माता कौशल्या, सुमित्रा तथा माता कैकेयी को जो अलौकिक, अप्रतिम सुख का अनुभव हो रहा है, उसको गोस्वामी तुलसीदास जी नापने-तौलने लगे, पर वे अपने को हारा हुआ अनुभव करके लिखने लगे कि माताओं को अपने पुत्र और वधुओं को देखकर कैसा लग रहा है? वह कहते हैं, जैसे किसी योगी ने जीवन भर साधना के पश्चात अंत में परम तत्व प्राप्त कर लिया हो : पावा परम तत्व जनु जोगी। ऐसा सुख माताओं को मिल रहा है। फिर बोले कि जैसे लंबे समय तक रोगग्रस्त पड़े हुए रोगी को अमृत की प्राप्ति हो गई और वह मृत्यु के भय से सदा के लिए मुक्त हो गया : अमृत लहेउ जनु संतत रोगी। फिर गोस्वामी जी लिखते हैं कि जन्म से भिखारी को कहीं से पारस पत्थर मिल गया। अब तो उसको आनंद हो गया, दरिद्रता कहीं रह ही नहीं गई। ऐसा सुख माताओं को मिल रहा है, पर इतने पर भी गोस्वामी जी से नहीं रहा गया, तब कहते हैं :

जनम रंक जनु पारस पावा।

अंधहिं लोचन लाभ सुहाबा।।

जो जन्म से ही अंधा था, उसको दिखाई देने लगा, मानो उसको आंखें मिल गईं। उन्होंने आगे कहा कि 'मूक बदन जनु सारद छाई' जैसे गूंगे को बोलना आ गया हो और जैसे किसी वीर को युद्ध में विजय प्राप्त हो गई हो। जब तुलसीदास जी माताओं के सुख की उपमाओं की श्रृंखलाएं बताते चले गए तो किसी ने कहा कि महाराज, माताओं के सुख का वर्णन अब तो पूरा हो गया कि कुछ और शेष है? तब तुलसीदास जी ने सुख को अनंत कह दिया और कहा कि जो मैंने कहा है, उसको सौ करोड़ से गुणा कर दीजिए :

एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।

भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु।।

अब भला सुख के संदर्भ में इस सौ करोड़ की गणना कौन कर सकता है? यहां गोस्वामी तुलसीदास जी कहना चाह रहे हैं कि जिससे आप प्रेम करते हैं, उसका प्रमाण यह है कि उसको सुख देने वाला जब उसके जीवन में दूसरा आ जाए तो आपका सुख दिन दूना और रात चौगुना होना चाहिए। तब यदि कहीं हमें अपने सुख में कमी लगने लगे तो इसका अर्थ यह है कि हमारा प्रेम अपने प्रेमास्पद के प्रति प्रेम न होकर केवल अहंजन्य अधिकार की भावना है। अधिकार भावना से युक्त जो प्रेम होता है, वह शरीरजन्य है, उसमें संपूर्ण समर्पण भाव नहीं होता। अयोध्या में महिलाएं मंगलगान कर रही हैं। माताएं बार-बार गुरु विश्वामित्र की कृपा का स्मरण कर रही हैं।

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वे कह रही हैं कि राम जितने भी बड़े-बड़े राक्षसों ताड़का, मारीच, सुबाहु आदि पर तुमने विजय प्राप्त की, शंकर जी का वह धनुष, जिसे संसार का कोई राजा डिगा भी नहीं सकता था, यदि तुम्हारे हाथ से टूट गया तो इसमें तुम्हारी कोई विशेषता नहीं है, अपितु वह तो केवल गुरुदेव विश्वामित्र जी की ही कृपा है। भगवान श्रीराम के विवाह के मुख्य माध्यम बने श्रीविश्वामित्र जी जब तक अयोध्या में रहे, तब तक वहां मंगल ही मंगल होता रहा :

मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भांति।

उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति।।

भगवान श्रीराम के जन्म से लेकर संपूर्ण लीला में गुरुओं, ऋषियों और मुनियों का बड़ा योगदान है। भगवान के विवाह ने अयोध्या और जनकपुर को जोड़ा, वशिष्ठ तथा विश्वामित्र का मिलना तो संसार का बड़ा चमत्कार है कि राम के लिए लिए दोनों गुरु अपने आपसी राग-द्वेष को भूल गए और श्रीराम के अवतार की संपूर्णता में अपनी योग्यता, भक्ति और ज्ञान को कर्म के सुरवे में रखकर आहुति दे देते हैं। श्रीसीता और श्रीराम का विवाह केवल दो शरीरों का मिलन मात्र कदापि नहीं हैं, राम का तो पूरा जीवन ही सेतु के रूप में दिखाई देता है। जनकपुर में महाराज दशरथ जी ने अपने चारों पुत्रों और चारों पुत्र वधुओं को देखकर जिस धन्यता का अनुभव किया, उसका वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :

मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।

जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥

इस प्रसंग को गोस्वामी तुलसीदास जी ने दार्शनिक रूप में प्रस्तुत किया। वे कह रहे हैं कि महाराज दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को पुरुषार्थ के चारों फल (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष) के रूप में पहले ही प्राप्त कर लिया था, पर इन चारों फलों को पाने की जो क्रिया है, संसार में लोग उसे नहीं जानने के कारण भगवान के विवाह का वास्तविक स्वरूप और अर्थ नहीं जान पाते हैं। श्रीराम पुरुषार्थ के मोक्ष फल हैं। उनकी पत्नी सीता मोक्ष की क्रिया भक्ति हैं। भक्ति के बिना मोक्ष का सुख संभव नहीं है। भक्ति रस के बिना संसार रस से विरक्ति संभव ही नहीं है। संसार रस से विरक्ति बिना मोक्ष होगा किससे?

जथा मोक्ष सुख सुनु खगराई।

रह न सकइ हरि भगति बिहाई।।

श्री भरत पुरुषार्थ के धर्म फल हैं, जिनकी पत्नी मांडवी धर्म प्राप्ति की श्रद्धा क्रिया हैं : श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। धर्म में यदि श्रद्धा तत्व न हो तो धर्म केवल प्रदर्शन का विषय होगा। वह समाज में सुविचार और सद्व्यवहार का आदर्श स्थापित नहीं कर सकेगा। श्री लक्ष्मण पुरुषार्थ के काम फल हैं। उनकी पत्नी उर्मिला काम की क्रिया योग हैं। संसार में लोग विवाह को काम का प्रसंग मानते हैं, पर काम जब तक योग क्रिया के साथ नहीं जुड़ेगा, तब तक वह भगवान के प्रति समर्पित होकर अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता है। लक्ष्मण जी को भगवान की सेवा में तादात्म्य देने का महान कार्य योग क्रिया उर्मिला जी ने किया, जिसके कारण श्रीलक्ष्मण जी को 14 वर्षों के वनवास में एक बार भी अयोध्या के संबंध और अपने संबंधों की स्मृति नहीं आई।

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काम की क्रिया भोग नहीं हैं, वह योग है। शत्रुघ्न जी पुरुषार्थ के अर्थ फल हैं। उनकी पत्नी श्रुतिकीर्ति अर्थप्राप्ति की दान-क्रिया हैं। संसार में लोग अर्थ को लोभ और संग्रह से जोड़ते हैं, पर अर्थ का उपयोग जब तक समाज कल्याण और दान के लिए नहीं होगा, तब तक अर्थ समाज में अनर्थ की सृष्टि करेगा। भगवान श्रीराम के विवाह का तात्पर्य मोक्ष भक्ति के साथ जुड़े, धर्म श्रद्धा के साथ जुड़े, काम योग के साथ जुड़े और अर्थ दान के साथ जुड़े, तभी समाज में सही संतुलन बनेगा। काम-लक्ष्मण मोक्ष-राम की सेवा में रहे, अर्थ-शत्रुघ्न धर्म-भरत की सेवा में रहे। यह सच्चा धर्म है, भक्ति और ज्ञान है, जिससे समाज संतुलित और सुखी रहेगा।