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क्या है रहस्य भारत के विभिन्न देवालयों में सुरक्षित विशाल खजानों का...

अकूत धन-संपत्ति के लिए आदिकाल से चर्चित हैं भारत के देवस्थान कभी इन पर आक्रांताओं की नजर पड़ी तो कभी राज्य ने चलाया विशेष अभियान। डा. रमेश चंद्र गौड़ बता रहे हैं कि यह केवल तहखानों-तिजोरियों में भरा खजाना नहीं बल्कि वह माध्यम है जिससे समाज की आर्थिकी रहती थी गतिमान। हाल ही में अपने खजाने के लिए पुरी का श्रीजगन्नाथ मंदिर चर्चित रहा है।

By Jagran News Edited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 04 Aug 2024 03:15 PM (IST)
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Temples Of India: मंदिर-केंद्रित अर्थव्यवस्था का क्या है महत्व
प्रो. रमेश चंद्र गौड़ (लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के प्रोफेसर)। श्रावण के पवित्र मास में श्रद्धालु शिवालयों में पूजा-अर्चना कर रहे हैं तो वहीं कांवड़ यात्राएं भी प्रारंभ हैं। कुछ सप्ताह पूर्व ही भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा संपन्न हुई है तो वहीं श्रावण के बाद भाद्रपद मास में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व में भी अधिक समय नहीं है। इष्टदेव कोई भी हों, अधिकांश भक्त प्रार्थना में सुख-संपत्ति मांगते हैं क्योंकि ईश्वर का अर्थ ही है ऐश्वर्य का स्वामी। जिनके नाम का अर्थ ही ऐश्वर्य से जुड़ता हो, उनके निवास का संपत्ति से संबंध स्वाभाविक है। यह देवार्चन के विशिष्ट दिन हैं। हाल ही में अपने खजाने के लिए चर्चित पुरी का श्रीजगन्नाथ मंदिर और लगभग 12 वर्ष पूर्व अतुलनीय-अपूर्व निधियों के लिए विश्व भर में चर्चा का केंद्र रहा तिरुवनंतपुरम का श्रीपद्मनाभस्वामी मंदिर इसके बड़े उदाहरण हैं।

सनातन परंपरा में विशिष्ट भूमिका

भारत के मंदिरों में खजाने की चर्चा देश-विदेश में होती रही है। सोमनाथ से विश्वनाथ तक, इन पर आधिपत्य के लिए अन्यान्य आततायियों ने भारतभूमि पर आक्रमण और विध्वंस किया। आज भी जब देवस्थानों में खजाने की चर्चा होती है तो हमारी आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। इतना वैभव, इतनी धन-संपत्ति, हम मात्र ऐसा भौतिक आंकलन करने लगते हैं जबकि इसके पीछे सनातन परंपरा में मंदिरों की क्या विशिष्ट भूमिका है, भारतीय संस्कृति में मंदिरों का क्या विशेष महत्व है, इसपर हमारा ध्यान नहीं जाता। वास्तव में सनातन परंपरा में मंदिर केवल पूजा-अर्चना का स्थल नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधियों का भी केंद्र बिंदु हैं। मंदिरों ने सांस्कृतिक पुनर्जागरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्राचीन काल में मंदिर शक्तिशाली संस्थाएं और सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु थीं। मंदिरों के माध्यम से शैक्षिक और सामाजिक सेवाओं का प्रसार होता था। स्पष्ट है कि इन गतिविधियों में अपार धन का व्यय भी होता था, जिसके लिए मंदिरों में विशिष्ट अर्थतंत्र विकसित था।

व्यापक था आर्थिक प्रभाव

हमारे पास पर्याप्त संकेत हैं कि भारत में हमेशा मंदिर-केंद्रित अर्थव्यवस्था थी। मंदिरों का आर्थिक प्रभाव बहुत व्यापक था। मंदिर में विराजमान देवता प्रमुख भूस्वामी थे, जिन्हें राजाओं, कुलीनों और आम लोगों से पर्याप्त भूमि दान प्राप्त होता था। यह भूमि, जिन्हें देवदान कहा जाता है, करों से मुक्त थीं और मंदिर की गतिविधियों का समर्थन करने के लिए आय का स्थिर स्रोत प्रदान करती थीं। भूमि दान और अन्य दानों के माध्यम से मंदिरों द्वारा एकत्रित की गई संपत्ति ने उन्हें सार्वजनिक कार्यों और कल्याण कार्यक्रमों को वित्तपोषित करने में सक्षम बनाया, जिससे वे प्रभावी रूप से सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों के शुरुआती उदाहरण बन गए। मंदिरों ने किसानों, व्यक्तियों और समुदायों को धन उधार देने के लिए शुरुआती बैंकों के रूप में भी काम किया। वे मंदिर व्यापार और वाणिज्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, जो अक्सर प्रमुख व्यापार मार्गों पर स्थित होते थे। मध्ययुगीन तमिलनाडु और कर्नाटक के शिलालेख इस बात पर प्रकाश डालते हैं। मंदिर महत्वपूर्ण नियोक्ता थे, जो पुजारियों, शिक्षकों, शिल्पकारों और मजदूरों सहित व्यापक श्रेणी के लोगों को आजीविका प्रदान करते थे। उन्होंने कृषि गतिविधियों का आयोजन किया और यहां तक कि अन्न भंडार का प्रबंधन भी किया, जिससे अकाल के दौरान खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई।

प्राचीन भारत में प्रबंधन

मंदिरों का निर्माण महान एवं पुण्यतम आनुष्ठानिक प्रक्रिया है। इतिहास से इसका एक उदाहरण उठाएं तो प्रतिहार नरेशों ने अपने विस्तृत साम्राज्य के अंतर्गत अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया जिसकी पुष्टि तत्कालीन अभिलेखों से होती है। मंदिरों की स्थापना से ही गांवों, कस्बों और नगरों का उदय हुआ। मंदिर-निर्माण ही नगर-निर्माण था। हमारे सभी प्राचीन नगरों में मंदिरों की बहुलता का होना इसी का प्रमाण है। प्रतिहारकालीन धार्मिक परिवेश में मंदिरों का निर्माण बड़ी संख्या में होने लगा। जनसाधारण में मूर्तिपूजा तथा भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता के साथ देवायतनों की संख्या में वृद्धि हुई फलस्वरूप उसकी व्यवस्था का दायित्व शासकों पर आया। इसके विषय में सूचनाएं अभिलेखों से प्राप्त होती हैं। प्रतिहार सम्राटों, उनके सामंतों आदि के अभिलेखों में तत्कालीन मंदिरों की प्रशासनिक एवं वित्तीय व्यवस्था के विषय में सूचनाएं प्राप्त होती हैं।

मंदिरों का प्रबंध करने के लिए शासक एक समिति बनाया करता था। उस शासन समिति को ‘गोष्ठी’ कहते थे और इसके सदस्य ‘गोष्ठिक’ कहलाते थे। ग्राम राजस्व तथा दान घोषणाओं के आधार पर कर की राशि एकत्रित करना तथा व्यय करने का दायित्व कुछ गोष्ठिकाओं या मंदिर व्यवस्थापिका समिति का होता था। मंदिर प्रबंधन में अधिकारियों का एक जटिल पदानुक्रम शामिल था जो मंदिर की भूमि और संसाधनों का प्रबंधन करते थे। मध्यकाल में मंदिर प्रबंधन अधिक परिष्कृत हो गया। दक्षिण भारत में, तंजौर के राजराजेश्वर जैसे मंदिरों में भूमि प्रबंधन और अनुष्ठान-आर्थिक आदान-प्रदान की जटिल प्रणालियां संचालित होती थीं। चोल राजाओं ने स्थानीय नेताओं को प्रशासनिक प्रणाली में एकीकृत करने के लिए मंदिरों का उपयोग किया, तथा धार्मिक संरक्षण के माध्यम से अपने राजनीतिक अधिकार को मजबूत किया।

सत्ता और स्वायत्तता में संतुलन

समकालीन भारत में मंदिरों का प्रबंधन विभिन्न राज्य कानूनों द्वारा नियंत्रित होता है। उदाहरण के लिए, हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम (एचआरसीई) राज्य सरकारों को मंदिर प्रशासन की देखरेख करने की अनुमति देता है, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित होती है। अनिवार्य किया गया है कि मंदिरों के राजस्व का लेखा-जोखा और उचित प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए ट्रस्टी या प्रशासक नियुक्त किए जाएं। इस अधिनियम में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल सहित कई राज्य शामिल हैं। प्रत्येक राज्य के पास अधिनियम की अपनी भिन्नता है, जो क्षेत्रीय विशिष्टताओं और उन क्षेत्रों में मंदिर प्रबंधन के अद्वितीय ऐतिहासिक संदर्भ को दर्शाती है।

उदाहरणस्वरूप तमिलनाडु में एचआरसीई विभाग हजारों मंदिरों का प्रबंधन करता है, दैनिक कार्यों की देखरेख के लिए ट्रस्टी और कार्यकारी अधिकारियों की नियुक्ति करता है। वहीं केरल में, प्रमुख मंदिरों का प्रशासन देवस्वोम बोर्ड द्वारा प्रबंधित किया जाता है। त्रावणकोर देवस्वोम बोर्ड द्वारा प्रबंधित सबरीमाला मंदिर इसका प्रमुख उदाहरण है। आंध्र प्रदेश में श्रीतिरुपति बालाजी देवस्थानम् का उदाहरण तो विश्वव्यापी है। राज्य के हस्तक्षेप के कारण मंदिर की संपत्तियों के नियंत्रण और उपयोग को लेकर कानूनी लड़ाइयां हुई हैं, जो धार्मिक संस्थाओं और राज्य प्राधिकरण के बीच जटिल संबंधों को दर्शाता है। आलोचकों का तर्क है कि राज्य का अत्यधिक हस्तक्षेप धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक संस्थानों की स्वायत्तता का उल्लंघन है।

पूर्व में हुए विवाद, जैसे कि केरल में पद्मनाभस्वामी मंदिर के प्रशासन पर बहस, जिसमें मंदिर की संपत्तियों की निगरानी और सुरक्षा के बारे में सवाल उठे, इस तनाव को उजागर करते हैं। ताजा बहस में ओडिशा के श्रीजगन्नाथ मंदिर का प्रशासन है तो वहीं तमिलनाडु में चिदंबरम नटराज मंदिर का प्रशासन राज्य और पारंपरिक संरक्षकों के बीच लंबे समय से कानूनी लड़ाई का विषय रहा है। इन तमाम किंतु-परंतु के बीच अंतिम सत्य यही है कि भारत में मंदिर धार्मिक स्थलों से विकसित होकर बहुआयामी संस्थाओं में बदले थे, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नवाचारों के माध्यम से, मंदिर आधुनिक समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवन के स्तंभों के रूप में काम करना जारी रख सकते हैं, बशर्ते हम उनकी संपदा को खजाने नहीं, समाज संचालन के लिए संचित पूंजी के रूप में देख पाएं!

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